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________________ सदाधरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५५ हुआ आहार-त्याग, यह एक मुहूर्त से लगाकर छह मास तक का (५) कायक्लेश-वीरासन, गोदुहासन आदि विभिन्न आसन होता है। दूसरा जीवन-पर्यन्त के लिये किया हुआ आहार-त्याग। करना, शीत या उष्णना सहन करने का अभ्यास करना कायजीवन पर्यन्त के लिए आहार त्याग की अनिवार्य शर्त यह है कि क्लेश उप है । कायक्लेश तप चार प्रकार का है--(१) आसन, उस अवधि में मृत्यु की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए । आचार्य (२) आतापना- सूर्य की रश्मियों का ताप लेना, शीत को पूण्यपाद के अनुसार आहार त्याग का उद्देश्य आत्म-संयम, सहन करना, अल्प वस्त्र अथवा निर्वस्त्र रहना । (३) विभूषा मासक्ति में कमी, ध्यान, ज्ञानार्जन और कमो की निर्जरा है, न का त्याग (४) परिकर्म–शरीर की साज-सज्जा का त्याग । कि मांसारिक उद्देश्यों की पूर्ति । अनशन में मात्र देह-दण्ट (६) संलीनता-संलीनता चार प्रकार की है-(१) इन्द्रिय नहीं है, वरन आध्यात्मिक गुणों की उपलधि का उद्देश्य निहित संलीनता-न्द्रियों के विषयों से बचना, (२) कषाय-सलीनताहै । स्थानांग सूत्र में आहार ग्रहण करने के और माहार त्याग' क्रोध, मान, माया और लोभ से बचना, (३) योग संलीनताके छह छह कारण बताये गये हैं। उसमें भूख की पीड़ा से मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों से बचना, (४) विविक्त निवृति, सेवा, ई, संयमनिर्वाहार्थ, धर्मचिन्तार्थ और प्राण- शयनासन-एकान्त स्थान पर सोना-बैठना । सामान्य रूप से रक्षार्थ ही आहार ग्रहण करने की अनुमति है। यह माना गया है कि कषाय एवं राग-द्वेष के बाह्य निमित्तों से (२) कनोदरी (भवमौदर्य)-इस तप में आहार विषयक बचने के लिए साधक को श्मशान, शून्यागार और वन के एकांत कुछ स्थितियां या शर्ते निश्चित की जाती हैं। इसके चार स्थानों में रहना चाहिए । प्रकार हैं। सागर तप के भेद (१) आहार की मात्रा कुछ कम खाना, यह द्रव्य-नो- आभ्यन्तर तप, तप का बह रूप है जो बाह्म रूप से तो तप वरी तप है। (२) शिक्षा के लिए, आहार के लिए कोई स्थान के रूप में प्रतीत नहीं होता किन्तु आत्मविशुद्धि का कारण होने निश्चित कर वहीं से मिली भिक्षा लेना, वह क्षेत्र छनोदरी तप से जैन परम्परा में उसे तप ही कहा गया है। बाह्य तप स्थूल है है। () किसी निश्चित समय पर आहार लेना यह काल कनो- जवकि आभ्यन्तर तप सूक्ष्म है। उत्तराध्ययन आदि सभी जैन दरी लप है । (४) भिक्षा प्राप्ति के लिए आहारार्थ किसी शर्त ग्रन्थों में बाभ्यन्तर तप के निम्न छ: भेद माने गये हैं(अभिग्रह) का निश्चय करना यह भाव ऊनोदरी तप है । संक्षेप (१) प्रायश्चित्त-अपने द्वारा हुए व्रतभंग दुराधरण के प्रति में ऊनोदरी तप वह है जिसमें किसी विशेष समय एवं स्थान ग्लानि प्रकट करना, उसे वरिष्ठ गुरुजनों के समक्ष प्रकट करके पर. विशेष प्रकार से उपलब्ध आहार को अपनी आहार की उसके शुद्धिकरण हेतु योग्य दण्ड की याचना करना एवं उनके मात्रा से कम मात्रा में ग्रहण किया जाता है। मूलाचार के द्वारा दिये गये योग्य दण्ड को स्वीकार करना, प्रायश्चित्त तप अनुसार उनोदरी तप की आवश्यकता निद्रा एवं इन्द्रियों के संयम है जो वस्तुत: आत्मशोधन की एक प्रक्रिया है । वासनाओं एवं के लिए तथा तप एवं पठ् आवश्यकों के पालन के लिये है। कषायों से उद्धेलित होना मनुष्य का सहज स्वभाव है । प्राय (३) रस परित्याग-भोजन में दूध, दही, घृत, तेल, श्चित्त के स्वरूपादि के सन्दर्भ में हमने आगे विस्तार से चर्चा मिष्ठान आदि सबका या उनमें से किसी एक वा प्रहण न करना की है । अतः पाठकों को वहीं देख लेने की अनुशंसा करता हूँ। रम-परित्याग है। रस-परित्याग स्वाद-जय है। नैतिक जोवन (२) विनय-मात्मशुद्धि बिना बिनय सम्भव नहीं है। की साधना के लिए स्त्राद-जय आवश्यक है। महात्मा गाँधी ने विनय व्यक्ति को अहंकार से मुक्त करता है और यह स्पष्ट है कि ग्यारह व्रतों का विधान किया, उसमें अस्वाद भी एक व्रत है। आत्मगत दोषों में अकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्राचीन जैन रस परित्याग का तात्पर्य यह है कि साधक स्वाद के लिए नहीं, ग्रन्थों में विनय शब्द का तालार्य है आनार के नियम । अतः बरन् शरीर-निर्वाह अथवा साधना के लिए आहार करता है। प्राचार के नियमों का सम्यक रूप में परिपालन ही विनय है। (४) भिक्षाचर्या--मिक्षा विषयक विभिन्न विधि-नियमों का दूसरे अर्थ में विनय विनम्रता का सूचक है। इस दूसरे अर्थ में पालन करते हुए भिक्षान पर जीवन यापन करना भिक्षाचर्या विनय का तात्पर्य है, वरिष्ठ एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए सप है। इसे वृत्ति परिस ग्यान भी कहा गया है। इसका बहुत उनकी आज्ञाओं का पालन करना अथवा उन्हें आदर प्रदान कुछ सम्बन्ध भिक्षुक जीवन से है। भिक्षा के सम्बन्ध में पूर्व करना। विनय के सात भेद हैं-(१) ज्ञान विनय, (२) दर्शन निश्चय कर लेना और तदनुकूल ही भिक्षा ग्रहण करना वृत्ति- विनय, (३) नारिष विनय, (४) मनोविनय, (५) यवनविनय, परिसंख्यान है । इसे अभिग्रह तप भी कहा गया है। (६) काय विनय और (७) लोकोपचार विनय । शिष्टाचार के १ सर्वार्थसिद्धि/१६ । २ मूलाधार ५/१५३ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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