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५४) चरणानुयोग : प्रस्तावना
है उसे सहा जाता है परन्तु तप में स्वेच्छा से कष्टमय जीवन या कपास वृत्ति के कारण आत्मतत्व से एकीभूत होकर उसकी को अपनाया जाता है। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि तप शुद्ध सत्ता, पाक्ति एवं ज्ञान ज्योति को अवतरित कर देते हैं। का अर्थ मात्र बह-दण्डन नहीं है। जैन परम्परा में तप में देह- यह जड़ तत्व एवं चतन तत्व का संयोग ही विकृति है। दण्डन तो है, किन्तु यह मात्र देहृदण्डन के लिए नहीं है, अपितु अतः शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धि के लिये आत्मा की अहिंसा की और संयम की साधना के लिये है। जैन धर्म में तप स्वशक्ति को आवरित करने वाले कर्म पुद्गलों का बिलगाव साधना के दो चरण हैं-(१) अहिंसा की साधना और (२) संयम आवश्यक है। कमें पुद्गलों के पृथक् करने की इस क्रिया को की साधना । इन दोनों पर वह प्रतिष्ठित है।
निर्जरा कहते हैं जो दो रूपों में सम्पन्न होती हैं। जब कर्म पण्डित सुखलाल संघवी ने भारतीय परम्परा में तप साधना पूनगन अपनी निश्चित अवधि के पश्चात अपना फल देकर स्वतः के विभिन्न रूपों के विकास का एक चित्र प्रस्तुत किया है। वे अलग हो जाते हैं, वह सविपाक निर्जरा है, लेकिन यह तप लिखते हैं कि ऐसा ज्ञात होता है कि तप का स्वरूप क्रमशः साधना का उद्देश्य नहीं है । तप साधना तो सप्रयास है । प्रयासस्थूल से सूक्ष्म को ओर विकसित होता गया। तपोमार्ग का पूर्वक वर्म-पुद्गलों को आस्मा से अलग करने की क्रिया को विकास होता गया और उसके स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर आदि अनेक अविपाक निर्जरा कहते है और तप ही वह क्रिया है जिसके द्वारा प्रकार साधकों ने अपनाए । यह तपोमार्ग अपने विकास में चार अविपाक निर्जरा होती है। भागों में बांटा जा सकता है । (१) अवधूत साधना, (२) तापस तप का प्रयोजन है प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से
ना; (B)1वीनादनः मोगधना सिनमें क्रमशः अलग कर आत्मा की स्वशक्ति को प्रकट करना। यही शुद्ध तप के सूक्ष्म प्रकारों का उपयोग होता गया, लग का स्वरूप बाह्य आत्म-तत्व की उपलब्धि है। यही आत्मा का विशुद्धिकरण है से आभ्यन्तर बनता गया। साधना देह-दमन से चित्तवृत्ति के ओर यही तप साधना का लक्ष्य है। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान निरोध की ओर बढ़ती गई।१ जैन साधना तपस्वी जीवन एवं महादीर तप के विषय में कहते हैं कि "तप आत्मा के परिशोधन योय साधना का समन्वित रूप में प्रतिनिधित्व करती है, जबकि की प्रक्रिया है ।" पाबद्ध कर्मो के क्षय करने की पत्ति है। बौद्ध एवं गीता के आचार दर्शन मुख्यतः योग-साधना का प्रति- तप के द्वारा ही महर्षिगण पूर्व पापकों को नष्ट करते हैं।" निधित्व करते हैं। फिर भी वे सभी अपने विकास के मूल केन्द्र तप राग द्वेष जन्य पाप-कर्मों के बन्धन को सीण करने का से पूर्ण अलग नहीं है। .
मार्ग है। जैन आगम आचारांग सूत्र का धूत अध्ययन, बौद्ध ग्रन्थ इस तरह जैन साधना में तप का उदेश्य या प्रयोजन पूर्वविसुद्धिमरा का धूतंगनिदेश और हिन्दू साधना की अवधूत बद्ध कर्म-पूगलों का आरम तत्व से पृथककरण, यात्म-परिशोधन गीता इन आनार-दर्शनों के किसी एक ही मूल केन्द्र की ओर और शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धि है। इंगित करते हैं। जैन-साधना का तपस्वी गागं ही अहिंसक जैन साधना में तप का वर्गीकरण संस्करण है।
जैन आचार-प्रणाली में तप के बाह्य (शारीरिक) और जैन साधना में तप का प्रयोजन
आभ्यन्तर (मानसिक) ऐसे दो भेद है। इन दोनों के भी छन्तप यदि मंतिक जीवन को एक अनिवार्य किया है तो उसे छह भेद हैं। किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए। अतः यह निश्चय कर (१) बाह्य तप---(१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) शिक्षालेना भी आवश्यक है कि तप का उद्देश्य नोर प्रयोजन क्या है? चर्या, (४) रस-परित्याग, (५) कायक्लेश और (६) संलीनता ।
जैन साधना का लक्ष्य शुद्ध वात्म-तत्व की उपलब्धि या (२) आभ्यन्तर तप-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, आत्मा का शुद्धिकरण है । लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन (३) यावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) गुस्सर्ग । दर्शन यह मानता है कि प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक शारीरिक या बाह्य तप के भेव । क्रियाओं के माध्यम से कर्म वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी ओर (१) अनशन-आहार के त्याग को बनशन कहते हैं। यह आकर्षित करता है । आकर्षित कर्मवर्गशाओं के पुद्गल राग-द्वेष दो प्रकार का है-एक निश्चित समयावधि के लिये किया
१ समदर्शी हरिमन पृ. ६७ । ३ उत्तराध्ययन, २८/३५ । ५ वही २८/३६, ३०/६ । ७ वही १०/७।
२ वही पृ.६७ । ४ वही २६/२७ । ६ वही ३०/१ ८ वही २०/८-२८ ।