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________________ ५६ [ चरणानुयोग : प्रस्तावना रूप में किये गये बाह्योपचार को लोकोपचार विनय कहा (४) संस्थान-विचय-लोक या पदार्थों की आकृतियों, जाता है। स्वरूपों का चिन्तन करना। (३) वयावृत्य-वैयावृत्य का अर्थ सेवा-शुश्रूषा करना है। संस्थान-विचय धर्म-ध्यान पुनः चार उपविभागों में विभाभिक्षु-संघ में दस प्रकार के साधकों की सेवा करना भिक्षु का जित है-() पिण्डस्य ध्यान-यह किसी तस्व विशेष के स्वरूप कर्तव्य है-(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) तपस्वी, (८) के चिन्तन पर आधारित है। इसकी पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती. गुरु, (५) रोगी, (६) वृद्ध मुनि, (७) सहपाठी, (८) अपने वारुणी और तत्वभू ये पांच धारणाएं मानी गई हैं। (ब) पदस्थ भिक्षु संघ का सदस्य, (8) दीक्षा स्थविर और (१०) लोक ध्यान-यह ध्यान पवित्र मंत्राक्षर आदि पदों का अवलम्बन सम्मानित भिक्षु । इन दस की सेवा करना बैग्रावृत्य ता है। करके किया जाता है। (स) रूपस्थ-ध्यान-राग, द्वेष, मोह इसके अतिरिक्त संघ (समाज) की सेवा भी भिक्षु का कर्तव्य है। नादि विकारों से रहित अहंन्त का ध्यान करना है । (द) रूपा (४) स्वाध्याय स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ आध्या- तीत-ध्यान-निराकार, चैतम्य-स्वरूप सिद्ध परमात्मा का ध्यान स्मिक साहित्य का पठन-पाठन एवं ममन आदि है। स्वाध्याय के करना । पांच भेद है शुक्त ध्यान--यह धर्म-ध्यान के बाद की स्थिति है। शुक्ल (क) वाचना--सङ्ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करना। ध्यान के द्वारा मन को शांत और निष्प्रकम्प किया जाता है। (स) पृच्छना-उत्पन्न शंकाओं के निरसन के लिए एवं इसकी अन्तिम परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वज्जनों से प्रश्नोत्तर एवं है। शुक्ल-ध्यान चार प्रकार का है-8) पृथकब-वितर्क-सविवार्तालाप करना। चार-इस ध्यान में ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करते-करते (म) परावर्तन--परावर्तन का अपहराना है . nि का और शब्द का चिन्तन करते करते अर्थ का चिन्तन ज्ञान के स्थायित्व के लिये यह आवश्यक है। करने लगता है। इस ध्यान में अर्थ, व्यंजन और योग का (घ) अनुप्रेक्षा-ज्ञान के विकास के लिए उसका चिन्तन संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है । करना एवं उस चिन्तन के द्वारा अजित ज्ञान को विशाल करना (२) एकत्व-वितर्क अविचारी- अर्थ, व्यंजन और योग संक्रमण 'अनुप्रेक्षा' है। से रहित, एक पर्याय-विषयक ध्यान "एकत्व-श्रुत अविचार" (E) धर्मकथा-धार्मिक उपदेश करना धर्मकया है। ध्यान कहलाता है। (३) सूक्ष्म क्रिया-अप्रति राती -मन, वचन (५) ध्यान-चित्त की अवस्थाओं का किसी विषय पर और शरीर व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल चासोच्छकेन्द्रित होना ध्यान है। जैन परम्परा में ध्यान के चार प्रकार वाम की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था हैं-(१) आर्त-ध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान और प्राप्त होती है। (४) समुच्छिन्न-क्रिया निवृत्ति-जब मन वचन (४) शुक्लध्यान । आर्तध्यान और रौद्रध्यान चित्त की दूषित और शरीर को समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है और प्रवृत्तियाँ हैं अत: साधना एवं तप की दृष्टि से उनका कोई मूल्य कोई भी सूक्ष्म क्रिया पोष नहीं रहती उस अवस्था को समुग्छिन नहीं है, ये बोनों ध्यान त्याज्य हैं। आध्यात्मिक साधना की क्रिया शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकार शुक्लध्यान की प्रथम दृष्टि से धर्म ध्यान और शुक्लध्यान ये दोनों महत्वपूर्ण है। अत: अवस्था से क्रमशः आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक इन पर थोडी विस्तृत चर्चा करना आवश्यक है। कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध धर्मध्यान-इसका अर्थ है चित्त-विशुद्धि का प्रारम्भिक कर अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है जो कि नंतिक साधना अभ्यास। और योग साधना का अन्तिम लक्ष्य है।' धर्म-ध्यान के लिये ये चार बातें आवश्यक हैं-(१) आगम (६) व्युत्सर्ग-व्युत्सर्ग का अर्थ त्यागना या छोड़ना है। ज्ञान, (२) अनासक्ति, (३) आत्म-संयम और (४) मुमुक्षुभाव । व्युत्सर्ग के आभ्यन्तर और बाह्य दो भेद हैं। बाह्य व्युत्सर्ग के धर्म ध्यान के चार प्रकार है चार भेद हैं(१) आज्ञा विचम-आगम के अनुसार तत्व स्वरूप एवं (१) कायोत्सर्म--कुछ समय के लिए शरीर से ममत्व को कर्तव्यों का चिन्तन करना । हटा देना। (२) अराय-विचय- हेय क्या है, इसका विचार करना । (२) गण-व्युत्सर्ग--साधना के निमित्त सामूहिक जीवन को (३) विपाक-विचय- हेव के परिणामों का विचार करना। छोड़कर एकांत में अकेले साधना करना। १ विशेष विवेचन के लिये वैखिए-- योगशास्त्र प्रकाश ७,८,९,१०, ११ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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