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सूत्र ३५६-३६०
असंविभागो पापक्षमण
अनाचार
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जाणामि जं वट्टद आउसु ! ति,
पास हैं, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुग्मन् ! ओ हो कि नाम काहामि सुएण भन्ते ॥ रहा है, उसे भी मैं जानता हूँ। भन्ते ! फिर मैं श्रुत का अध्ययन
-उत्त. अ. १७, गा. २ करके क्या करूँगा ?" असंविभागो पावसमणो
असंविभागी पापश्चमण३५७. बहमाई पमुहरे, पदे सुबे अणिग्गहे ।
३५७. जो बहुत कपटी, वात्राल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय असंविभागी अधियसे, पावसमणि सि वुमचई ।।
और मन पर नियन्त्रण न रखने वाला, भक्त-पान आदि का --उत्त. अ. १७. मा. ११ संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला
होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। आरंभजीथिस्स पावासत्ति
आरम्भ-जीबी को पापासक्ति३५८. आवंती केयावती लोयंसि आरमजीवी, एतेसु चेव आरंभ- ३५८. इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीबी है वे विषयों जीवी।
की अभिलाषा से हिंसा का आचरण करते हैं । एस्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पाहि कम्मेह, असरणे अज्ञानी साधक इस अमयमी जीवन में भी विषय पिपासा से सरणं ति मग्णमाणे -आ. मु.१,अ.५,उ.१, सु. १५० छटपटाता हुआ अधारण को ही शरण मानकर पापकों में रमण अट्टा पया माणव ! कम्मकोविया,
करता है। हे मानव ! संमार में अनेक प्राणी विषय-कषायों से जे अणुवरता अधिज्जाए पलिमोखमा आवट्टमेव अणुपरि- पीड़ित हैं, कर्म-बन्धन करने में चतुर हैं, पापों से विरत नहीं है यरित। -आ. सु. १, अ. ५, उ. १, सु. १५१ (ख) तथा अविद्या से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं, वे संसार के चक्र
में बारम्बार परिभ्रमण करते हैं। अभिक्खणं आहारकारगो पावसमणी
बार-बार बाहार करने वाला पापश्रमण३५६. अस्य तम्मि य सूरम्मि, आहारेद अभिक्खणं ।
३५६. जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक बार-बार खाता चोइओ पडिनोएइ, पावसमणे ति वच्चाई।" रहता है, तथा “ऐसा नहीं करना चाहिए" इस प्रकार कहते ' -उत्त. अ. १७, गा. १६ वाले का अनादर करते हुए प्रत्युत्तर देता है; बह पापश्रमण
कहलाता है।
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प्रमाव-निषेध-३
पमाय-णिसेहो
प्रसाद निषेध२६०. बुमपत्तए पण्डपए जहा, निवरह राहगणाण अच्चए। ३६०. रात्रियों बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार एवं मणुयाण जीवियं, समय गोयम ! मा पमायए ॥ गिर जाता है. उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त
हो जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर, कुसग्गे जह ओस बिन्नुए, भोवं चिदुइ लामाणए । कुश की नोक पर लटकते हुए ओसबिन्दु की अवधि जैसे एवं मणुयाणजीवियं, समय गोयम ! मा पमायए। अल्प होती है वैसे ही मनुष्य-जीवन की गति है, इसलिए हे
गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। इह इत्तरियाम्म आजए, जीवियए बहुपत्रवायए। यह आयुष्य क्षण-भंगुर है, यह जीवन विघ्नों से भरा हुआ बिडणाहि रसं पुरे का, समय गोयम पापमायए ॥ है, इसलिए हे गौतम ! तू पूर्व-संचित कर्म-रज को दूर कर और
--उत्त. अ.१०, गा.१-३ क्षण पर भी प्रमाद मत कर ।