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चरणानुयोग-२
छ: उन्माद स्थान
सूत्र ३५२-३५६
४३ आसंदी ४३ पलियंके य, ४५ णिसिज्जं च गिहतरे । (४३) बैत आदि की कुर्सी पर बैठना, (४४) पलंग पर बैठना, ४६ संपुच्छणं च, ४७ सरणं च तं चिज परिजाणिया ॥ (४५) गृहस्थ के घर में बैठना, (४६) गृहस्थ का कुशल क्षेम
पूछना, (४७) कामक्रीड़ा का स्मरण करना, विद्वान् साधु इन्हें
अनर्यकारक समझकर इनका परित्याग करे। ४८ जसं ४६ कित्ति, ५० सिलोगं च जाय ५१ वण- (४८) समयलोक में यश, (४६) कीति, (५०) प्रशंसा,
५२ पूषणा। (५१) वंदना और (५२) पूजा-प्रतिष्ठा आदि की जो कामनाएँ सवलोप्ति जे कामा, तं विज्जा परिजाणिया ।। होती है, विद्वान मुनि उन्हें संयम के अपकारी ममझकर इनका
त्याग करे । ५३ जेणेहं णियवहे भिक्खू, अन्न-पाणं तहाविह। (५३) इस जगत् में जिन पदार्थों से साधु के संयम का ५४ अणुप्पदाणमन्नेसि, तं बिज्ज परिजाणिया । निर्वाह हो सके वैसे ही आहार पानी ग्रहण करे। (५४) वह -सूय. सु. १, अ. ६, मा. १२.२३ आहार-पानी असंयमी को देना अनर्थकर जानकर तत्वज्ञ मुनि
नहीं देवे । उसे संयम विघातक जानकर साधु उसका त्याग करे । ५५ णपणत्य अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए
) की कार के शिला साध गङ्गस्थ के घर में न ५६ गामकुमारियं कि, ५७ नातिबेलं हसे मुणी ॥ बैठे, (५६) ग्राम के लड़के-लड़कियों का खेल न खेले एवं (५७)
- गूय. सु. १, अ. ६, गा. २६ मर्यादा का उल्लंघन करने म हंसे । छ उम्मायट्ठाणाई
छ: उन्माद स्थान--- ५३. छह ठाणेहि आया जम्माय पाउणेज्जा, तं जहा
३५३. छह स्थानों से आत्मा उन्माद को प्राप्त होता है१. अरहंताणं अवाणं वदमागे ।
(१) अर्हन्तों के अवर्णवाद करता हुआ । २. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवष्णं ववमाणे ।
(२) अहंत-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता हुआ। ३. आयरिय-उवग्लायाणं अवणं बदमाणे ।
(३) आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णवाद करता हुआ । ४. चाउचण्णस्स संघस्स अवणं बदमाणे ।
(४) चतुर्वर्ण संघ का अवर्णवाद करता हुआ। ५. जक्खावेसेण चेत्र ।
(५) यक्षावेश से । ६ मोहणिज्जस्स चैव कम्मरस उदएणं ।
(६) मोहनीय कर्म के उदय से।
--ठाणं. अ. ६, सु. ५०१ सामुदाणिय-गवेसणा अकारओ पावसमणो
सामुदानिक गवेषणा नहीं करने वाला पाप श्रमण३५४. साइपिणं जेमेइ, नेच्छई सामुदागिय ।
३५४. जो ज्ञातिजनों के घरों में ही आहार ग्रहण करता है, गिहिनिसेज च वाहेइ, पावसमणे ति बुच्चई ।
मामुदानिकी (सभी कुलों से) गोचरी नहीं लेता है और गृहस्थ
-उत्त. अ. १७, गा. १६ को शय्या पर बैठता है वह पाप श्रमण कहलाता है । सछंद विहारी पावसमणो
स्वच्छन्द विहारी पाप श्रमण३५५. जे केइ उ पवाए गियंदु, धम्म सुणित्ता विणओवयन्ते । ३५५. जो कोई निर्ग्रन्थ धर्म को सुनकर दुर्लभतम बोधि-लाभ सुदुल्लहं लाहि बोहिसाभे, पिहरेज्ज पच्छा य जहासुहं सु॥ को प्राप्त कर विनय से युक्त हो प्रवजित होता है किन्तु प्रव्रजित
-उत्त. अ. १७, मा. १ होने के पश्चात् स्वच्छन्द विहारी हो जाता है, वह पाप श्रमण
कहलाता है। गुरूपरिभावए निच्च पावसमणे ति बुच्चइ ।
मुरुका तिरस्कार करने वाला पाप श्रमण है।
-उत्त. अ.१७, गा, १० सुयणाणोक्खा
श्रुतज्ञान की उपेक्षा३५६. मेश्जा बहा पाउरणम्म अस्थि,
३५.. गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर वह कहता ___ उप्पालाई भोत्तुं तहेव पाउँ । है-"मुझे रहने को अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे