SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६] चरणानुयोग-२ छ: उन्माद स्थान सूत्र ३५२-३५६ ४३ आसंदी ४३ पलियंके य, ४५ णिसिज्जं च गिहतरे । (४३) बैत आदि की कुर्सी पर बैठना, (४४) पलंग पर बैठना, ४६ संपुच्छणं च, ४७ सरणं च तं चिज परिजाणिया ॥ (४५) गृहस्थ के घर में बैठना, (४६) गृहस्थ का कुशल क्षेम पूछना, (४७) कामक्रीड़ा का स्मरण करना, विद्वान् साधु इन्हें अनर्यकारक समझकर इनका परित्याग करे। ४८ जसं ४६ कित्ति, ५० सिलोगं च जाय ५१ वण- (४८) समयलोक में यश, (४६) कीति, (५०) प्रशंसा, ५२ पूषणा। (५१) वंदना और (५२) पूजा-प्रतिष्ठा आदि की जो कामनाएँ सवलोप्ति जे कामा, तं विज्जा परिजाणिया ।। होती है, विद्वान मुनि उन्हें संयम के अपकारी ममझकर इनका त्याग करे । ५३ जेणेहं णियवहे भिक्खू, अन्न-पाणं तहाविह। (५३) इस जगत् में जिन पदार्थों से साधु के संयम का ५४ अणुप्पदाणमन्नेसि, तं बिज्ज परिजाणिया । निर्वाह हो सके वैसे ही आहार पानी ग्रहण करे। (५४) वह -सूय. सु. १, अ. ६, मा. १२.२३ आहार-पानी असंयमी को देना अनर्थकर जानकर तत्वज्ञ मुनि नहीं देवे । उसे संयम विघातक जानकर साधु उसका त्याग करे । ५५ णपणत्य अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए ) की कार के शिला साध गङ्गस्थ के घर में न ५६ गामकुमारियं कि, ५७ नातिबेलं हसे मुणी ॥ बैठे, (५६) ग्राम के लड़के-लड़कियों का खेल न खेले एवं (५७) - गूय. सु. १, अ. ६, गा. २६ मर्यादा का उल्लंघन करने म हंसे । छ उम्मायट्ठाणाई छ: उन्माद स्थान--- ५३. छह ठाणेहि आया जम्माय पाउणेज्जा, तं जहा ३५३. छह स्थानों से आत्मा उन्माद को प्राप्त होता है१. अरहंताणं अवाणं वदमागे । (१) अर्हन्तों के अवर्णवाद करता हुआ । २. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवष्णं ववमाणे । (२) अहंत-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता हुआ। ३. आयरिय-उवग्लायाणं अवणं बदमाणे । (३) आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णवाद करता हुआ । ४. चाउचण्णस्स संघस्स अवणं बदमाणे । (४) चतुर्वर्ण संघ का अवर्णवाद करता हुआ। ५. जक्खावेसेण चेत्र । (५) यक्षावेश से । ६ मोहणिज्जस्स चैव कम्मरस उदएणं । (६) मोहनीय कर्म के उदय से। --ठाणं. अ. ६, सु. ५०१ सामुदाणिय-गवेसणा अकारओ पावसमणो सामुदानिक गवेषणा नहीं करने वाला पाप श्रमण३५४. साइपिणं जेमेइ, नेच्छई सामुदागिय । ३५४. जो ज्ञातिजनों के घरों में ही आहार ग्रहण करता है, गिहिनिसेज च वाहेइ, पावसमणे ति बुच्चई । मामुदानिकी (सभी कुलों से) गोचरी नहीं लेता है और गृहस्थ -उत्त. अ. १७, गा. १६ को शय्या पर बैठता है वह पाप श्रमण कहलाता है । सछंद विहारी पावसमणो स्वच्छन्द विहारी पाप श्रमण३५५. जे केइ उ पवाए गियंदु, धम्म सुणित्ता विणओवयन्ते । ३५५. जो कोई निर्ग्रन्थ धर्म को सुनकर दुर्लभतम बोधि-लाभ सुदुल्लहं लाहि बोहिसाभे, पिहरेज्ज पच्छा य जहासुहं सु॥ को प्राप्त कर विनय से युक्त हो प्रवजित होता है किन्तु प्रव्रजित -उत्त. अ. १७, मा. १ होने के पश्चात् स्वच्छन्द विहारी हो जाता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। गुरूपरिभावए निच्च पावसमणे ति बुच्चइ । मुरुका तिरस्कार करने वाला पाप श्रमण है। -उत्त. अ.१७, गा, १० सुयणाणोक्खा श्रुतज्ञान की उपेक्षा३५६. मेश्जा बहा पाउरणम्म अस्थि, ३५.. गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर वह कहता ___ उप्पालाई भोत्तुं तहेव पाउँ । है-"मुझे रहने को अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy