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________________ २६२] चरणानुयोग-२ मक्त-प्रत्यास्यान अनशन सूत्र ५४७-५४६ १. वाघाइमे य, २.निवाघाइमेय । (१) व्याधातिम (२) निर्याधातिम । नियमा सकिम्मे । से तं भत्तपच्चपलाणे । ये दोनों नियम से समतिकर्म होते हैं। यह भक्त प्रत्या -उब. सु. ३० स्थान है। भत्त-पचक्रवाण-अणसणे भक्त-प्रत्याख्यान अनशन५४८ विह पि विदित्ता णं, बुद्धा धम्मस्स पारगा। ५४८. वे धर्म के पारगामी तत्वज्ञ मुनि आभ्यंतर और बाह्य अणुपुरतीए संखाए, कम्मुणा य तिउष्मृति ।। दोनों प्रकार की संलेखना जानकर अनुक्रम से विचार कर आराधन करके कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। कसाए पयषुए किच्चा, अप्पाहारो तितिक्खए । संलेखना का इच्छुक भिक्षु कषायों को कृश करके, अल्पाअह मिक्लू गिलाएज्जा, अहारस्सेव अंतियं ॥ हारी बनकर समय व्यतीत करे । ऐसा करते हुए यदि म्लानि को प्राप्त हो तो आहार का त्याग कर तप स्वीकार करे। जीवियं णाभिकोन्जा, मरगं भो बि पत्थए । भिक्षु न तो जीने की अकांक्षा करे और न मरने की अभिबुहतो वि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा ।। लाषा करे । जीवन और मरण दोनों में से किसी में भी आसक्त न हो। मनस्यो णिज्जरापेही, समाहिमणुपालए। निर्जरा का इच्छुक मुनि-जीवन और मरण में माध्यस्थ अंतो बहिं बियासेन्ज, अजमत्थं सुझमेसए ।। भाव रखकर समाधि भाव में रहे। कषाय और आहारादि का त्यास काम शुद्ध आत्मचितन में लीन रहे। जं किचुदक्कम जाणे, आउखेमस्स अप्पणो । यदि अपनी आयु के क्षेम में जरा सा भी उपक्रम जान पड़े तस्सेव अंतरसाए खिप्यं, सिपखेज पंहिते ॥ तो पण्डित मुनि जरा संलेखना काल के मध्य में ही शीघ्र पंडित मरण को स्वीकार कर ले । गामे अदुवा रणे, पंडिलं पडिलहिया । ग्राम में अथवा बन में अनशन योग्य भूमि का प्रतिलेखन अप्पपाणं तु विणाय, तणा' संथरे भुणी ।। करे, जीव जन्तु रहित स्थान जानकर मुनि वहाँ घास बिछा ले । अणाहारो तुबट्टनमा, पुट्ठो तस्थऽहियासए । फिर आहार का त्याग कर संस्तारक पर प्रायन करे । पातिषेस उवचरे, माणुस्सेहि वि पुटुवं ।। परीषहों और उपसर्गों से आक्रान्त होने पर सहन करे । मनुष्य आदि के उपसर्गों से भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन न करे। संसध्यगा य जे पाणा, जे य उड्ढमहेचरा । जो रेंगने वाले प्राणी हैं, जो ऊपर आकाश में उड़ने वाले हैं मुंजते मंससोणियं, ण छणे ण पमज्जए । या जो नीचे बिलों में रहते हैं, वे कदाचित अनशनधारी मुनि के शरीर का मांस नोंचे और रक्त पीएँ तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन करे। पाणा देहं विहिसंति, ठाणातो ण वि उन्ममे । ये प्राणी मेरे शरीर का ही नाश कर रहे हैं, ज्ञानादि आसहि विविरोहि, तिप्पमाणोऽलियासए॥ आत्मगुणों का नहीं', ऐसा विचार कर उन्हें न हटाए और न ही स्थान से उठकर अन्यत्र जाए। आस्त्रवों से रहित अध्यवसायों के द्वारा बेदना को अमृत के समान समझकर सहन करे । गंथेहिं विवित्तेहि, आयुकालस्स पारए। विद्वान मुनि विभिन्न कष्टों को मृत्यु पर्यन्त सहन करें और परगाहयतरषं चेत, पवियस्स बियाणतो॥ इस पण्डित मरण को मोक्ष का उत्तम साधन समझकर बाराधन -आ.सु. १, अ.८, उ.८, गा. २-११ (१७-२७) करे। भत्त पच्चस्खायगस्स अणगारस्स परभवे आहारो- भक्त प्रत्याख्यात अणगार का परभव में आहार५४६. प.-अत्तपश्चक्खायए गंमते ! अणगारे मुछिए गिडे ५४६.प्र.-मन्ते ! भक्त प्रत्याख्यान अनशन करने वाला अणगार गलिए अज्मोववषणे आहारमाहारेइ अहे णं वोससाए यदि उस अवस्था में काल कर जाये तो वह पहले मूच्छित, गृद्ध, काल करेइ, तओ पच्छा अपुन्छिए-जाव-अणज्सोव- अथित और अत्यन्त आसक्त होकर आहार करता है और इसके यणे आहारमाहारेह? बाद अमुचित-यावत्-अनासक्त होकर आहार करता है ?
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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