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________________ सूत्र ५४६-५५० इगिनीमरण अनशन ग्रहण विधि तपाचार [२६३ उ.--हंसा गोयमा ! भत्तपस्वक्वायए गं अणगारे-जाव- उ-हाँ गोलम ! भक्त प्रत्याख्यान अनशन करने वाला अणमोबवण्ते आहारमाहारेइ । ___ अणगार—यावत्-अनासक्त होकर आहार करता है। ५०-से फेग?णं भंते ! एवं बुच्चइ "भत्तपनक्वायए पं प्र०-भन्ते ! ऐसा क्यों कहा गया है कि-भक्तप्रत्याख्यान अणगारे-जाव-अणमोचवणे माहारमा ?" *न मारः --याब अनासक्त होकर आहार करता है ?" उ०-गोयमा । भत्तपञ्चवायए गं अणगारस्स मुच्छिएउ०—गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान अनशन करने वाला अणगार -जाव-अग्लोवयणे आहारे भवइ, अहे वोससाए यदि उस अवस्था में काल करे तो उसके स्वाभाविक ही प्रथम कालं करे, तओ पच्छा अमुन्छिए-जाव-अगसोबषपणे मूच्छित-यावत्-अत्यन्त आसक्त भाव से आहार होता है और आहारे भवइ । बाद में अमूचित-यावत् । अनासक्त भाव से आहार होता है । से तेणी गोयमा ! एवं स्वाइ-मत्तपच्चक्वायए णं इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि - भक्तपत्याख्यान अणगारे-जाव-अणशोषवणे आहारमाहारे।। अनशन करने वाला अणगार -यावत्-अनासक्त होकर आहार -वि. स. १४, उ.७, सु. ११ करता है। इंगिणीमरण अणसणस्स गहण विहि इंगिनिमरण अनशन ग्रहण विधि५५० अयं से अवरे प्रस्मे, णायपुत्तेण साहिते। ५५०. ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने यह दूसरा इगितमरण नायब पण्यिार, विजहेज्जा तिधा तिधा ।। अनशन रूप धर्म का प्रतिपादन किया है। इस अनशन में भिक्षु मन, वचन और काया से दूसरे का सहारा न ले, न लिवावे, न लेने वाले का अनुमोदन करे । हरिएसु ण णियज्जेज्जा, पंडिल मुणिमा सए । मुनि हरियाली पर शयन न करे, निर्दोष स्थण्डिल को देख विउसज्ज अणाहारो, पुट्ठो तस्थ अहियासए । कर वहां सोए । आहार और शरीर आदि के ममत्व का त्याग कर परीषहों तथा उपसर्गों से स्पष्ट होने पर उन्हें सहन करे। इन्दिएहि गिलायंती, समियं साहरे मुणी । मुनि इन्द्रियों से ग्लान होने पर ममित होकर हाथ-पैर तहावि से अगरिहे, अचले थे समाहिए ॥ आदि सिकोड़े। यदि समाधि अचल रहती हो तो शरीर से चेष्टा करता हुआ वह घमं का अतिक्रमण नहीं करता है । अभिक्कमे परिपकमे, संकुचए पसारए । भिक्ष शारीरिक समाधि के लिए तथा प्रारीर संधारणार्थ कायासाहारणट्टाए, एल्यं दा वि अचेयणे ॥ गमन और आगमन करे, हाथ-पैर आदि को सिकोड़े और पसारे । यदि शरीर में शक्ति हो तो अचेतन की तरह निश्चेष्ट परिक्कमे परिकिलते, अदुवा चिठे अहायते । ठाणेम परिफिलसे, णिसोएज्ज ८ अंतसो॥ आसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरते । कोलावासं समासज्ज, वितहं पातुरेसए । जतो वजं समुपज्जे, ण तत्थ अवलंबए। ततो उमफसे अपाणं, सब्वे फासे अहियासए ।। आ. सु. १, अ. ६, न. ६, गा. २७-३३ जस्स पंभिक्खुस्स एवं भवति"से गिलामि च खलु अहं इममि समए इमं सरीरगं अण- पुष्वेण परिवहिसए" से अणुपुत्रेणं आहारं संबोजा, ___ यदि चूमते हुए थक जाय तो कभी सीधा खड़ा रहे । यदि खड़ा रहने में कष्ट होता हो तो अंत में बैठ जाए। इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यक् रूप से प्रवृत्त करे । दीमक वाले काण्ठ पट्टे के प्राप्त होने पर उससे भिन्न जीव रहित पाट का अन्वेषण करे। किन्तु जिससे पाप कर्म उत्पन्न हो, ऐसे दीमक आदि से युक्त पाट आदि का सहारा न ले। उमसे अपने आपको दूर हटा ले और उपस्थित सभी दुःखदायी स्पर्शो को सहन करे । जिस भिक्ष के मन में ऐसा संकल्प होता है कि "मैं इस समय इस शरीर को वहन करने में श्रमणः असमर्थ होता जा रहा हूँ", तो वह श्रमशः आहार का संक्षेप करे ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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