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वरणानुयोग-२
परिहारकल्पस्थित करण भिजु को अल्प प्रायश्चित्त देने का विधान
सूत्र ६७० ६७१
वा"
परिहारकप्पट्टिए मिक्सू भेराणं पडिग्गहेणं यहिया येरागं परिहार कल्प में स्थित भिक्षु स्थविर के पात्रों को लेकर व्यावडियाए गमछज्जा थेरा य गं वएज्जा
उसके लिए आहार-पानी लाने को जावे तब स्थबिर जसे कहे
कि"पनिगाहेहि अज्जो! तुमंपि पच्छा भोवलसि वा पाहिसि "हे आर्य ! तुम अपने लिए भी साथ में ले आना और बाद
में खा लेना पी लेना।" एवं से कप्पड़ पडिग्गाहेत्तए ।
ऐसा कहने पर उसे स्थविर के पात्रों में अपने लिए भी
आहार लागा कल्पता है। तस्य नो कप्पइ परिहारिएणं अपरिहारियरस पदिग्गहंसि बपारिहारिक स्थविर के पात्र में पारिहारिक भिक्षु को अशन असणं वा-जाब-साइमं वा भोत्सए वा पायए वा ।
यावत् - स्वाद्य खाना-पीना नहीं कल्पता है। कम्पह से सयंसि वा पडि गहसि, सयंसि का पलासगंसि किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलाशक में, कमण्डल में, सयंसि वा कमण्डलगंसि, सयंसि वा खुरामगंसि, सस या दोनों हाथ में या एक हाय में ले लकर खाना-पीना कल्पता है। पाणिसि उदट-उबर भोसए वा पायए वा। एस कप्पो परिहारियस्स अपरिहारियाओ।
यह पारिहारिक भिक्षु का अपारिहारिक भिक्ष की अपेक्षा -उ २, सु २७-३० मे आचार वहा गया है। परिहारकप्पटियस्स गिलाणस्स लहू पायजित दाण परिहारकल्पस्थित रुग्ण भिक्षु को अलर प्रायश्चित्त देने विहाणं
का विधान६७१. परिहार-कप्पढिए भिक्खू गिलाएमाणे अन्नयर अफिच्च- ६७१ परिहार तप रूप प्रायश्चित्त करने वाला भिक्षु यदि हाण ट्ठाणं पडिसेविसा आलोएज्जा,
होने पर किसी अकृत्य स्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे
तो - उसके प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में तीन विकल्प है१. से य संथरेज्जा ठवणिज ठवइत्ता करगिजं वेयावडिय। (१) यदि वह परिहार तप करने में समर्थ हो तो आचार्यादि
उसे परिहार ता रूप प्रायश्चित्त र और उसकी यावश्यक सेवा
व.ग । २. से य नो संघरेज्जा अनुपरिहारिएणं तस्स करणिज्ज (२) यदि वह समर्थ न हो तो आचार्यदि उसकी वयावृत्य वेयावडिया
के लिए अनुपारिहारिक भिक्षु को नियुक्त करे । ३. से य संते बले अणुपारिहारिएणं कीरमाणं यावडियं (३) यदि वह पानिहारिक भिक्षु सबल होते हुए भी अनुसाइज्जेज्जा, से विकसिणे तस्येव आरहेयव्ये सिया। पारिहारिक भिक्षु से बयावृत्य करावे तो उस का प्रायश्चित्त भी
पूर्व प्रायश्चित्त के साथ आरोपित करे। परिहार-कप्पदिय भिक्ख गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स परिहार तप रूप प्रायश्चित्त करने वाला भिक्षु यदि रोगादि गणावच्छे इयस्स निग्जूहितए। अगिलाए तस्स करणिज्जं से पीड़ित हो जाय तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना बेयावरिया, जावतमओ रोगायंकाओ विपमुक्को । तओ नहीं कल्पता है। किन्तु जब तक वह रोग के आतंक से मुक्त न पच्छा तस्स अहालहसए नाम ववहारे पट्टवियम्वे सिया। हो तब तक उसकी अग्लान भाव से बयावृत्य करानी चाहिए
-चत्र.उ. २, सु. ५-६ बाद में गणावच्छेदक उस पारिहारिक भिक्षु को अत्यल्प
प्रायश्चित्त दे। .परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियार परिहारकल्पस्थित भिक्षु यदि स्थविरों की यादत्य के लिए गच्छेज्जा, से य आहच्च अदक्कमेजजा, तंव येरा जाणिज्जा कहीं बाहर जावे और कदाचित् कोई दोष सेवन कर ले-पह - अप्पणो आगमेणं, अन्नेसि वा अंतिए सोच्ना, तो पछा वृत्तांत स्थविर अपने ज्ञान रो या अन्य से सुनकर जान ले तो सस्स बहालहसए नामं वबहारे पट्ठत्रियत्वे सिया। चयावृत्य से निवृत्त होने के बाद उसे अस्प प्रायश्चित्त दे।
-कप्प. उ. १, सु.५१