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________________ २३२] चरणानुयोग-२ सम्बन्ध विच्छेद करने का विधि-निषेध प्रत्र ४६३.४८४ २. उबझायपडिणीणं, (२) उपाध्याय के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ३. थेरपरिणीयं, 2) शिर के प्रतिदत माण करने वाले को। ४. फुलपरिणीयं, (४) कुल के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ५. गणपडिणीयं, (५) गण के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ६. संघपरिणीयं, (६) संघ के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ७. पाणपडिणीयं, (७) सम्यज्ञान के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ८. सणपक्षिणीयं (6) सम्पदर्शन के प्रतिकूल आचरण करने वाले को । १. चरितपडिणीयं । -ठाणं, १.६. सु. ६६१ (१) सम्यकमारित्र के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। विसंमोग करण विहि-णिसेहो सम्बन्ध विच्छेद करने का विधि-निषेध - ४६४. जे निग्गया य निगथीयो य संभोइया सिया, नो गं कम्पद ४८४. जो निर्ग्रन्य-निर्यधिनियां सांभोगिक हैं, उनमें से किसी निगथं पारोक्खं पाडिएक्कं संमोइयं विसंभोग करतए। एक निन्ध को परोक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके विसं भोगी करना नहीं कल्पता है। कप्पद पं पच्छक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विस भोगं करेत्तर। किन्तु प्रत्यक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विर्म भोगी करना कल्पना है। अत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तस्थेव एवं एज्जा-- जब एक दूसरे से मिले नब ही इस प्रकार कहे वि:"अहं गं अज्जो ! तुमए सद्धि इममि कारणम्मि पश्चरवं "हे आय ! मैं अमुक कारण से तुम्हारे साथ सांभोगिक पाहिएक्कं संमोइयं विसंभोग करेमि।" व्यवहार बन्द करके तुम्हें विसम्भोगी करता हूं।" से य पडितप्पज्जा, एवं से नो कप्पइ पच्चपर्ख पारिएक्कं इस प्रकार कहने पर वह यदि पश्चात्ताप करे तो प्रत्यक्ष में संभोइयं विसंभोगं करेत्तए । भी उसके साथ सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे बिराम्भोगी करना नहीं कल्पता है। से यनो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ परचक्ख पाडिएक्क यदि वह पश्चात्ताग न करे तो प्रत्यक्ष में जगके साथ सांभोसंमोइयं विसंभोग करेत्तए। गिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोषी करना कल्पता है। जे णिग्गंथा य जिग्गयीयो य संभोइया सिया, नो गं कप्पद जो निन्य निग्रन्थियाँ सांभोगिक हैं उनमें निन्थिनी को णिग्गयीणं पच्चवं पारिएक्कं संसोइयं विसंभोग करेत्तए। प्रत्यक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके विसम्भोगी करना नही फल्पता है। कप्पदणं पारोक्ख पाडिएक्कं संभोइयं बिसंभोग करेत्तए। किन्तु परोक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विस भोगी करना कल्पता है । जत्थेव ताओ अप्पणो आयरिय-उबझाए पासेज्जा सस्थेष जब वे अपने आचार्य या उपाध्याय की सेवा में पहुंचे तब एवं वएज्जा उन्हें इस प्रकार कहें"अहं गं मंते ! अमुगीए अज्जाए सडि इमम्मि कारणम्मि "हे भन्ते ! मैं अमुक आर्या के साथ अमुक कारण से परोक्ष पारोक्ख पाडिएक्कं संबोधयं विसंभोग करेमि।" रूप में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करमा नाहती हूँ।" सा य परितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पइ पारोषखं पा-िएक्क तब वह निग्रन्थी यदि (आचार्य-उपाध्याय के समीप अपने संमोइयं विसंभोग करेत्तए । सेवित दोष का पश्चात्ताप करे तो उसके साथ परोक्ष रूप में भी सांभोगिक व्यबहार बन्द भरना व उसे विसम्भोगी करना नहीं कल्पना है। सा य नो पतिप्पेज्जा, एवं से कप्पड़ पारोक्तं पाहिएक्क यदि यह पश्चात्ताप न करे तो परोक्ष रूप में उस के साथ सांभो. संभोइयं विसंमोगं करेस्तए। -वय. उ. ७, सु. ४-५ गिक व्यवहार बन्द करके उगे विसम्भोगी करना कल्पता है ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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