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________________ सूत्र ४८२-४८३ धमणों के पारस्परिक व्यवहार संघ-व्यवस्था [२३१ सांभोगिक संबंध व्यवस्था समणाणं अण्णमण ववहारा-- श्रमणों के पारस्परिक व्यवहार४८२. बुबालसाविहे संमोगे पण्णत, त जहा ४८२. व्यवहार बारह प्रकार के कहे गए हैं । यथाउबहि सुय प्रसपाणे, अंजलीपरगहे ति य। (१) उपधि आदान प्रदान व्यवहार । दायणे य निकाए य, अन्मुट्ठाये ति आवरे ॥ (२) श्रुत के अध्ययन अध्यापन का व्यवहार, (३) भक्त-पान आदान-प्रदान व्यवहार, (४) एक दुसरे को हाथ जोड़ने का व्यवहार, () शिष्य आदि के आदान-प्रदान का व्यवहार, (६) परस्पर निमन्त्रण देने का व्यवहार, (७) खड़े होकर आदर देने का व्यवहार, कितिकम्माप्त य करणे, पावश्चकरणे ति य । (क) परस्पर वन्दन व्यवहार, समोसरण सनिसेकजा य, कहाए य पधणे ॥ (E) परस्पर सेवा करने वार व्यवहार, --सम. सम.१२, मु.१ (१०) एक दूमरे से मिलने का व्यवहार, (११) आसन देने का व्यवहार, (१२) एक पाट पर बैठकर धर्म कथा करने का व्यवहार। विसंभोगकरणे कारणा सम्बन्ध विच्छेद करने के कारण४८३. लिहिं ठाणेहि समणे णिग्गये साहम्मियं संमोगिय विसंभो- ४५३. तीन कारणों से थगण निर्गन्य अपने सार्मिक, सांभोगिक पियं करेमाणे णातिक्कमति, साधु को विसम्भोगिक करता हुआ भगवान् की आज्ञा का अति तं जहा क्रमण नहीं करता है । यथा१. सयं वा बट्ट, (१) स्वयं किसी को प्रतिकूल आचरण करता देखकर । २. सविस्स या निसम्म, (२) विश्वस्त श्रावक या साधु से सुनकर । ३. तमचं मोसं आउदृति, उत्य नो आउट्टति । (३) तीन बार असत्य भाषण क्षम्य होता है चौथी बार –ठाणं. अ. ३, उ. ३, गु. १८० असत्य भाषण क्षम्य नहीं होता है अत: विसंभोग करे। पंचहि ठाणेहि समणे जिग्गंथे साहम्मियं संमोइयं विसंमोहन पांच स्थानों से श्रमण निग्रन्थ अपने साम्भोगिक सार्मिक करेमाणे णातिकमसि, को विसं भोगिक करे तो जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है। तं जहा यथा१. सकिरियट्ठाणं परिसेवित्ता भवति । (१) जो अकृत्य कार्य का प्रतिसेवन करता है। २. पजिसेवित्ता को आलोएड । (२) जो अकृत्य कार्य का प्रतिसेवन कर आलोचना नहीं करता है। ३. आलोपत्ता को पवेति । (३) जो आलोचना कर प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करता है। ४. पवेत्ता गो णिग्विसंति । (४) जो प्रायश्चित्त का पूर्ण सेवन नहीं करता है। ५. जाई इमाई घेरा ठितिपकप्पाई भवंति ताई अप्तियंचिय (५) जो स्थविरों के आवश्यक आचार के विपरीत धृष्टताअतिषिय पडिसेवेति, 'से हंबह पडिसेवामि, कि मे थेरा पूर्वक आचरण कर कहे कि "मैं इन दोषों का सेवन करता हूँ, करिस्सति ? -ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३६८ स्थविर भेरा क्या कर लेंगे।" णवहिं ठाणेहि सम णिमा ये साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं नौ कारणों से श्रमण निर्मन्ध अपने सामिका को सांभोगिक करेमाणे पातिकमप्ति, सं जहा से विसंभोगिक करता हुआ अतिक्रमण नहीं करता है। १. पायरियपडिगीयं । (१) आचार्य के प्रतिकूल आचरण करने वाले को ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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