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________________ २३० ] चरणानुयोग - २ परस्पर सेवा करने का विधि-निषेध मोहरिए वा विसोहेलए या तं च निम्बंधी मोहरमापी करने में निवसमर्थ न हो उस समय यदिनिधी विकासे या शोधन करे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती है । निग्रन्थ की आंख में मच्छर आदि प्राणी, बीज या रज गिर जाये उसे निकालने में या शोधन करने में निर्ब्रम्य समर्थन हो उस समय यदि निर्ग्रन्थी निकाले या शोधन करे तो जिनाज्ञा का नही करती है। निधी के पैर में शुष्क, टूट, कंटक, सीमा या पाषाण खण्ड लग जाये उसे निकालने में या शोधन करने में निर्ग्रन्थी समर्थ न हो उस समय यदि निर्बंन्ध निकाले या शोधन करे तो जनता का अतिक्रमण नहीं करता है। विसोमाणी वा नाइक्कम निग्गंथरस य च्छसि पागे या बीये वा, रए वा परियाया तं निनो संचाए नोहरिए बा, विसो हे या तं चनियांधी नोहरमाणी या विसोमाणी वा नाइक्कमइ । " - सूष You-yat लिची आहे पास लायू या कंडवा होराए बा सक्करे वा परियावज्जेज्जा तं च निग्गंधी नो संचाएइ, हरितए वा विसोहेतए था, तं च निम्ये नोहरमाणे वा विलोमा वा नाह निबीए य अति पाणे वा, बोये वा, रए वा परियाजेजा तं निग्गंधी मो संचाए मोहरिए था, जिसो एबाचे नोहरमाणे वा विसोमाने वा -कप्प. उ. ६, सु. ३-६ अण्णा वैयावच्च करण विहिणिसेही-४७६. जे निरगंधाय निरगंधीओ य संभोश्या सिया, नो णं कप्पइ अन्नमन्नेणं यावच्चं कारसए । नाइक्कमइ । अस्थि य इत्थ णं केइ वेयाचचचकरे कप्प णं तेगं बेयावर कारबेशए. नरिथ य हस्थ णं केइ वेधावन्त्रकरे एवं णं कप्पड़ अनमने या कार -बब. उ. ५, सु. २० अणमण्ण आलोयणा करण विहि-जिसेहो ४८०. जे निग्गंया य निग्गंथोमो य संभोइया सिया, नी णं कप्पह ४८०, जो साधु और साध्वियों सरंभोगिक हैं उन्हें परस्पर एक दूसरे के समीप आपना करना नहीं करता है। यदि स्थापक्ष में कोई आलोचना सुनने योग्य हो तो उनके समीप आलोचना करना कल्पता है । निर्ग्रन्थी की आँख में मच्छर आदि ग्राणी, बोज या रज गिर जाये उसे निकालने में या शोधन करने में निर्धन्धी समर्थन हो उस समय यदि निर्ग्रन्थ निकाले या शोधन करे तो जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है । परस्पर सेवा करने का विधि-निषेध ४७६. साधु और साध्वियां सांभोगिक हैं उन्हें परस्पर एक दूसरे की वैयावृत्य कराना नहीं कल्पता है । यदि स्वपक्ष में कोई वैयावृत्य करने वाला हो तो उससे वैयावृत्य करना कल्पता है । यदि स्वपक्ष में वैयावृत्य करने वाला कोई न हो तो साधुसाध्वी को परस्पर वैयावृत्य करना कल्पता है । परस्पर आलोचना करने के विधि-निषेध - अमर अंतिए आए। अस्थिय इत्यणं केद्र आलोयणारिह कप्पद गं तस्स अंतिए आलोइसर, यदि स्वपक्ष में आलोचना सुनने योग्य कोई न हो तो साधु - नय य इत्यणं केंद्र बावणारि एवं कप्प मनस्स अंतिए आलोएत्तए । - वव. उ. ५, सु. १६ साध्वी को परस्पर आलोचना करना कल्पता है । अण्णमणस्स मीय गहण विहि-होपरस्पर प्रावण ग्रहण करने का विधि-निषेध४८१. नो कप नियाण वा निग्गंयोग वा अन्नमशस्स मोयं बिराए वा आयमितए वा नहत्थ गावापासु रोगासु । कप्प. उ. ५, हु. ४६ ४५१. निर्मन्थों और निन्थियों को एक दूसरे का मूत्र पीना या शरीर के लगाना नहीं कल्पता है केवल उम्र रोग एवं आतंकों में कल्पता है । **
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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