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परमानुयोग-२
आठ प्रकार के महानिमित्त
सत्र ३७२-३७५
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निमित्त कथन--10
अट्टविहा महाणिमिता
आठ प्रकार के महानिमित्त - ३७२. अविहे महाणिभित्ते पपणते, तं जहा
३७२. महानिमित्त आठ प्रकार के होते हैं । यथा१. भोमे, २. उप्पाते,
(१) भौम, (२) उत्पात (उपद्रव,) (३) स्वप्न, ४. अंतलिपखे, ५. अंगे, ६. सरे
(४) अन्तरिक्ष, (५) आंग.
(६) स्वर, ७. लक्षणे, ८. वंजणे ।। -ठाणे. अ.८, सु. ६०८ (७) लक्षण, () व्यंजन (तिल, मसा आदि) पिमित्त वागरण णिसेहो--
निमित्त कथन निषेध३७३. जे लक्षणं सुविणं पउंजमाणे, निमित्ते कोऊहल संपगावे। ३७३, जो लक्षणशास्त्र और स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है, कुठेड विजा-सवदारजीवी, न गई सरणं सम्मि काले। जो निमित्तशास्त्र और कौतुक-कार्य में लगा रहता है, मिथ्या
-उत्त. अ. २१, गा. ४५ आश्चर्य उत्पन्न करने वाली आश्रव युक्त विद्याओं से आजीविका
करता है, वह मरण के समय किसी की शरण नहीं पा सकता । जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविक व जे पनि। लो सापक लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं अंगविद्या का नते समणा बुच्चंति, एवं आयरिएहि अस्खायं ॥ प्रयोग करते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में श्रमण नहीं कहा जाता, ऐसा
-उत्त. अ.८, गा.१३ आचार्यों ने कहा है। छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं, सुविणं लक्षण-वर-वरविम्ब। जो छेदन, स्वर (उच्चारण), भौम, अंतरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, अंगरियार सरस्स विजयं, ने विजाहि नजीवई स मिक्खू ॥ दंड, बास्तु विद्या, अंगस्फुरण और स्वर विज्ञान आदि विद्याओं के
-उस.. १५, गा.७ द्वारा आजीविका नहीं करता है वह भिक्षु है। नक्सशं सुमिणं जोग, निमित्त मंत मेसज ।
नक्षत्र, स्वप्न, वशीकरण योग, निमित्त, मन्त्र और भेषजपिहिणोन आइरखे, भूयाहिगरणं पयं ॥ ये जीवों की हिंसा के स्थान हैं, इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके
-वस. अ. ८, गा. ५१ फलाफल न बताए। निमित्त प्पओगी पावसमणो
निमित्त का प्रयोक्ता पाप-बमण३७४. सयं गेहं परिवरज, परगेहंति नायडे।
३७४. जो अपना घर छोड़कर दूसरों के घर में जाकर उनका निमिसेप य यकहरई, पावसमणे ति बुच्चाई।
कार्य करता है और निमित्त शास्त्र से शुभाशुभ बताकर जीवन -उत्त. स. १७, गा. १८ व्यवहार चलाता है वह पाप-थमण कहलाता है।
कवाय-निषेध-११
कवाय-णिसेहो
कषाय निषेध३७५. पलिऊचणं च भयणं च, पंडिलनुस्सयणाणि य । ३७५. माया और लोभ तथा क्रोध और मान को नष्ट कर डालो धुणादाणाई लोगंसि, तं विज्ज परिजाणिया ।। क्योंकि ये सव (कषाय) लोक में कर्मबन्ध के कारण हैं, अतः - सूय. सु. १, म.६, गा. ११ विद्वान् साधक परिशा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनका
त्याग करे।
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समवाय. २६, सु. १