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पूध ३७५-३७७ कषायों को अग्नि की उपमा
अनाचार १०१ wwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm कोहं माणं च मायं च, लोमं च पावबढणं ।
क्रोध, मान, माया और लोभ ये पाप को बढ़ाने वाले हैं। पमे सत्तारि बोसे उ, इच्छतो हियमप्पण्णो॥
आत्मा का हित चाहने वाले को इन चारों दोषों दोषों को छोड़
देना चाहिये। कोहो पीदं पणासेइ, माणो विगयनासणो।
क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने माया मित्तागि नासेद, लोहो सम्बविणासणो ।
वाला है, माया मैत्री का विनाश करता है और लोभ सभी सद
गुणों का नाश करने वाला है। उपसमेण हणे कोई, माणं महवया जिणे।
उपशम से क्रोध का हनन करे, मृदुता से मान को जीते, मायं चज्जवभाग, लोभं संतोसओ जिगे।
सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते। कोहो य माणो य अणिगहोया, माया य लोमा य पवढमाणा। वश में नहीं किये हुए क्रोध और मान, बढ़े हुए माया और पत्तारि एए कसिणा कसाया, सिचंति मूलाई पुगम्भवहम ॥ लोभ ये सम्पूर्ण चारों कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष की जड़ों का
-दस..८, गा. ३६-३६ सिंचन करती है। जे यावि बास्सुए सिया, धम्मिए माहणे भिक्खुए सिया । मायामय अनुष्ठानों में आसक्त पुरुष चाहे वहुश्रुत हों चाहे वे अभिगूमकडेहिं मुछिए, तिचं से फम्मेहि किश्चती ।। धर्माचरणशील हों, ब्राह्मण हों या माण हों अथवा भिक्षु हों वे
कों द्वारा अत्यन्त पीड़ित किये जाते हैं। अह पास विवेगमुहिए, अवितिग्णे इह मासई घुतं । हे शिष्य ! यह देखो कि-काई साधकः संयम स्वीकार गाहिसि आरं को परं? बेहासे कम्मेहिं किन्चई ॥ करके कषाय विजय में सफल नहीं होते हुए भी संयय का कथन
करते हैं उनका यह लोक भी नहीं सुधरता है तो परलोक कैसे सुधरेगा ? अर्थात नहीं सुधरता है और बीच में ही वे कर्मों से
पीडित होते रहते हैं। जाविय णिगिणे किसे चरे, जइ बिय भुजिय मासमंतसो। यदि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह को कृश करता है और जे इहमायाइ मिपणती, आगंता गल्मायणंतसो॥ मास-मास के अन्त में एक बार खाता है. फिर भी माया आदि
-सूय. सु. १, म. २, उ.१, गा. ७-६ से परिपूर्ण होने के कारण वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है। कसायाणं अग्गो उवमा--
कषायों को अग्नि को उपमा-- ३७६. ५०-संपजलिया घोरा, अग्गो चिट्ठा गोपमा। २७६. प्रत-(केशीकुमार पूछते हैं) हे गौतम ! प्राणिमात्र के में सहन्ति सरोरत्या, कहं विउमाविया तुम ? | शरीर में बोर अम्नियाँ प्रज्वलित हो रही है और आत्मा के गुणों
को भस्म कर रही हैं उन अग्नियों को बापने कैसे बुझाया ? -महामहापसूयाओ, गिजा वारि जनुत्तमं ।
उ.-महामेघ से उत्पन्न स्रोत में से पवित्र-जल को लेकर सिंधामि सययं तेउ, सिता नो बहन्ति में। मैं उन अग्नियों का निरन्तर सिंचन करता हूँ। अत: सिंचन की
गई वे अग्नियां मुझे नहीं जलाती हैं। प.-अग्गीय इद के वृत्ता? फेसी गोयममम्यवी । प-वे कौन-सी अग्नियाँ हैं ?" केशी ने गौतम को
केसिमेवं युवत सु, गोयमो इणमायनी ।। कहा । केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहाज-कसाया अग्गिगो बुसा, मुस-सील-सवो जलं ।
उ-"कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और मुयधारामिहया सप्ता, मिलान म्हन्ति मे ॥ तप यह जल है। श्रुत-शील-तप-रूप-जल-धारा से बुझी हुई और
-उत्त, अ. २३, गा. ५०-५३ नष्ट हुई अग्निया मुझे नहीं जलाती हैं।" अट्ठमयप्पगारा
आठ प्रकार के मद-~३७७. अट्ट मयटाणा पण्णता, तं जहा
३७७. मद आठ प्रकार के कहे गये हैं। यथा१. जातिमए, २. कुलमए, ३. बलमए, (१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, ४. रूबमए, १. तवमए, ६.सुत्तमए, (४) रूपमद, (५) तपमद, (६) श्रुतमद, .. लाममए, ८.इसरियमए।
(७) लाभमद, (८) ऐश्वयंमद । -ठाणं. अ. सु. ६.६