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चरणानुयोग २
मणिसेहो -
३७८. पण्णामयं श्रेव तवोभयं च विष्णाभए पोयमयं च भिक्लू । materia माह से पंडिले उत्तमपोगले से ॥
एतर महराई विधि छोरा तानि सेति सुधीरधम्मा ते सब्बगोलावताहेती, उद अगोत्तं च गति कति सू. सु. १, अ. १३ . १५-१६
नामसे न कयमसे न साममते न एमम मपाणि सव्वाणि विवज्जसा, धम्मज्जयामरए जे स भिक्लू ।।
- दस. अ. १०, रा. १६
न
बाहिरं सुदामे
न
परिश्रमे मज्जा,
अत्तागं न सफले । जच्चा सवसिद्धिए ।। - इस. अ. ८ गा. ३०
तयसं व जहा से रयं इति संखाय गोयण्णतरेण माहणे. अह सेमकरी
स्वमद- णिसेहो - ३७६. मे कई सरीरे सत्ता,
सुणी य मज्जई । अन्नेसि इंक्षिणी ।।
जो परिभवई परं जगं संसारे अरु इंजिनिया पाविया इति संकाय उ पण # सुप. सु. १. अ. २,
परिवत्तई महं । णी ण मज्जई ॥ उ. २, गा. १-२
वण्णे हवे य सम्बो ""सच्चे तेा ।
मावना दीहमाणं संसारम्मि अनंतए । तन्हा सब्बदिसं पल्स, अप्पमतो
परिष्ए ।
-उत्त, अ. ६, गा. ११-१२
लज्जा-जिसेहो
२०. जे माथि अणायगे सिया, जे वियपेसए सिया जे मोमपदं उबडिए, वो सज्जे समय - सू. सु. १,
कसाय गारव गिरोहो
३८१. अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय
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या परे ।। २, ७.२, मा. ३
पंडिते । मुनि ॥
मारवाणि य सम्पाणि, निव्यानं संघ --सूत्र सु. १, अ. ९गा. ३६
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मच निषेध
सूत्र ३७८-३८१
मद निषेध
३७८. भिक्षु प्रज्ञा का मद, तप का मद, गोत्र का मद और चौथा आजीजा का मद मन से सम्पूर्ण रूप से निकाल दे। जो ऐसा करता है, वही पण्डित और उत्तम आत्मा है।
धीर पुरुष इन मदों को आत्मा से पृथक् कर दे। क्योंकि धर्यवान साधक उन जति आदि मदों का सेवन नहीं करते वे सय प्रकार के वोबादि मदों से रहित नदिन नामादि महर्षिगण नाम-गोत्रादि से रहित सर्वोच्य मोक्ष गति को प्राप्त होते हैं।
जो जाति का मद नहीं करता, जो रूप का मद नहीं करता, जो लाभ का मद नहीं करता, जो भूत का मद नहीं करता, जो सब मदों का वर्जन करता हुआ धर्म ध्यान में रत रहता है - वह भिक्षु है।
भिक्षु दूसरे का तिरस्कार न करे। अपना बयन न दिखाए। श्रुत, लाभ, जाति सम्पन्नता, तप और बुद्धि का मदन करे । को
जैसे सर्प अपनी केंचुली का इच्छुक मुनि कर्म रज afe after a
छोड़ देता है वैसे ही कल्याण को दूर कर देता है ऐसा जानकर यद न करे तथा कल्याण का नाम
करने वाली दूसरों की निन्दा भी न करे ।
जो साधक दूसरों का तिरस्कार करता है, वह चिर काल तक संसार में परिभ्रमण करता है तथा परनिन्दा पापों की जननी ही है, यह जानकर मुनि किसी प्रकार का अहंकार न करे । रूपमद निषेध
३७६. जो कोई मन, वचन और काया से भारीर के वर्ण रूप जादि में सर्वशः आसक्त होते हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन करते हैं।
वे इस अनन्त संसार में जन्म-मरण के लम्बे मार्ग को प्राप्त किए हुए हैं। इसलिए सब दिशाओं का भली भाँति विचार कर मुनि अप्रमत्त होकर विचरे । लग्ना निषेध
३८०. जो पूर्व में चक्रवर्ती राजा आदि हो अथवा जो दासों का भी दास हो किन्तु अत्र यदि वह संयम मार्ग में उपस्थित हो गया तो उसे लज्जा या अभिमान न करते हुए सदैव सम्यक् प्रकार से संयम का आचरण करना चाहिए।
कषाय और गर्व का निषेध
३८१. पण्डित मुनि अति मान और माया तथा सभी गर्यो को जानकर उनका परित्याग करे और स्वयं निर्वाण की साधना में लगे ।