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________________ सूत्र३८२-३५६ साम्परायिक कर्मों का त्रिकरण निवेध अनाचार [१९३ णिकपणे भिक्खू सुलू हजीवी, जो साधु अपरिग्रही है, स्था-सुना आहार करता है वह भाषी जे गारवं होई सिलोयगामी । यदि गर्व और प्रशंसा की थाकाक्षा करता है तो उसकी भिक्षावमेयं तु अबुज्नमाणे, वृत्ति आदि केवल आजीविका के साधन हैं। परमार्थ को न पुगो- पुणे विपरियासुवेद ॥ जानने वाला वह अज्ञानी पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करता है। मे मासर्व भिक्खू सुसाधुवाई, जो भिक्षु भाषाविज्ञ है, जो हितमित-प्रिय भाषण करता है पव्हिाणवं होड विसारए य । जो बुद्धि सम्पन्न है, जो शास्त्र में निपुण है, जो सूक्ष्म तत्वों को बागाउपपणे सुविमाधिनाया, सम वाला है, संयम में अपनी आरमा को भावित करता है। अण्पं जणं पणया परिभवेज्जा ॥ (परन्तु इन गुणों से युक्त होने पर भी जो) दूसरे लोगों को अपनी बुद्धि से तिरस्कृत करता है वह समाधि को प्राप्त नहीं करता। एवं प से हो समाहिपत्त, जो भिक्षु प्रज्ञावान् होकर अपनी जाति, बुद्धि आदि का गर्व जे पण्णव मिक्ख विउकज्जा । करता है, अथवा जो लाभ के मद से मत्त होकर दूसरों की निंदा अश्वा वि जे सरमममावलित, करता है वह बालबुद्धि (मूखं) समाधि को प्राप्त नहीं होता है। अखणं अगं खिसति बालपणे ॥ -सूय. सु. १, अ. १३, गा. १२-१४ सापराइय-कम्भाणं-तिकरण-णिसेहो-- साम्परायिक कमों का त्रिकरण निषेध-- ३८२. से भिक्त जपि य इमं संपराहयं कम्मं कम्जह, गो तं सय ३८२. जो यह साम्परायिक (कवाययुक्त) कर्मबन्ध किया जाता करेति, नेवग्गणं कारवेति, अग्नं पि करतं णाणुजाणति, है, उसे वह भिक्षु स्वयं नहीं करता है, न दूसरों से कराता है इति से महता मावाणातो उपसंते उपट्टिते परिविरते। और न ही करते हुए का अनुमोदन करता है। इस कारण वह --सूप. सु. २, अ. १ सु. ६८६ शिक्षु महान कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है तथा शुक्ष संयम में रत और पापों से विरत रहता है। कोहविजय-फलं-- क्रोध-विजय का फल-- ३८३. प०---कोहविजएग भन्ते 1 जीवे कि जणयह ? ३८३. प्र.-भन्ते ! क्रोध-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ०-कोहविषएवं खन्ति जणयह, कोहवेयगिज्वं कम्मन ३०-क्रोध-विजय से वह क्षमा को प्राप्त करता है। वह बग्वाइ, पुम्वब व निजरेइ । क्रोध-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्म को -उत्त. अ. २६, सु ६९ क्षीण करता है । माणविजय-फलं मान-विजय का फल३८४. ५०- माणविजएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? ३८४.प्र.-- भन्ते । मान-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है? उ० . माणविजएणं महवं जगयई, मागवेवणिज कम्मं न उ०-मान-विजय से वह मृदुता को प्राप्त करता। वह बन्धइ, पुस्वयं च निज्जरेइ । -उत्त. अ. २६, सु.७१ मान-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्व-बद्ध कर्म को क्षीण करता है। मायाविजय-फल माया-विजय का फल३८५. ५०-मायाविजएणं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? ३८५. प्र--भन्ते ! माया-विजय स जीव क्या प्राप्त करता है? उ मायाविमएणं उज्जुभाष जगयह, मायावेयणिज्ज -माया-विजय से बह सरलता को प्राप्त करता है। कम्मं न सन्धह, पुवायाच निजरेछ । वह माया-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्व-बद्ध कर्म -उत्त. अ. २६, सु. ७० को क्षीण करता है। लोविजय-फल लोभ-विजय का फल-- ३८६. ५०-- लोमविजएणं भन्ते ! जोवे कि जणयह ? ३८६, प्र०-मन्ते ! लोम-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है?
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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