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________________ ७० | परमानुयोग : प्रस्तावना करना, उन पर काबू रखना और उन्हें सजगतापूर्वक आत्मा रो दर्शन, चारित्र गौर तप इन चारों में अपनी सामथ्यं को न बाहर निकाल फेंकना यही बीर्याचार है। छिपाते हुए पुरुषार्थ करना ही बीर्याचार है, इस प्रकार बीर्याचार संक्षेप में कहें तो कषायों, बासनाओं और मनोविकारों पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के क्षेत्र में किया गया पुरुषार्थ है विजय लाभ करने के लिए प्रयत्नशील होना ही बीर्याचार है। और इस दृष्टि से वह इन चारों आवारों में अनुस्यूत है किन्तु आस्मा की वे शक्तियां जो कि कर्मावरण के कारण अनभि- अनुस्यूत होते हुए भी उनका प्राण है क्योंकि बिना पुरुषार्थ और व्यक्त हैं उन्हें अभिव्यक्त करना ही पुरुषार्थ है और यही वीर्य प्रयत्न के साधना सफल नहीं होती है। है। बैन परम्परा में आत्मा को अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त- उत्सर्ग और अपवाद - जैन आचार्यों ने आचार सम्बन्धी सुख और अनन्तवीर्य से युक्त माना गया है। आत्मा के उस जो विभिन्न विधि-निषेध प्रस्तुत किये हैं वे निरपेक्ष नहीं है। अनन्तवीर्य को प्रकट कर लेना ही वीर्याचार है। आत्मा की देश-काल और व्यक्ति के आधार पर उनमें परिवर्तन सम्भव हो शक्ति को आवृत या गोपित करने वाले कारणों के उन्मूलन सकता है। आचार के जिन नियमों का विधि-निषेध जिस करने में ही बीर्य या पुरुषार्थ निहित है। जिस प्रकार किन्हीं सामान्य स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है उसमें वे विशिष्ट परिस्थितियों में कोई भौतिक बस्तु अपने यथार्थ गुण- आचार के विधि निषेध यथावत् रूप में पालनीय माने गये हैं, घमों को प्रकट करने में समर्थ होती है। उसी प्रकार किसी वस्तु किन्तु देश-काल, परिस्थिति अयवा वैयक्तिक परिस्थितियों की पा व्यक्ति में निहित क्षमता या शक्ति को ही बीर्य कहा जाता है भिन्नता में उनमें परिवर्तन भी स्वीकार किया गया है। व्यक्ति और उस क्षमता का यथार्थ रूप में प्रकटन कर सेना ही वीर्य और देश-कालगत सामान्य परिस्थितियों में जिन नियमों का पुरुषार्थ है। उदाहरण के रूप में एक उच्च बुद्धिलब्धि बाले पालन किया जाता है बे उत्सर्ग मार्ग कहे जाते हैं किन्तु जब बालक में स्नातकोत्तर अध्ययन की सामर्थ्य होती है किन्तु जब देशकालगत और वैक्तिक विशेष परिस्थितियों में उन सामान्य वह अध्ययन करता हुआ क्रमशः विकास करता है तब वह विधि-निषेधों को शिथिल कर दिया जाता है तो उसे अपवाद योग्यता में बदल जाती है। इसी प्रकार आत्मा में निहित सामर्थ्य मार्ग कहा जाता है। वस्तुतः आचार के सामान्य नियम उत्सर्ग को योग्यता में परिणत कर देना ही वीर्याचार है। वीर्य का मार्ग काहे जाते हैं और विशिष्ट नियम अपवाद मार्ग कहे जाते वर्गीकरण अनेक रूपों में उपलब्ध होता है जैसे कायवीर्व (शारी- है। यद्यपि दोनों को व्यावहारिकता परिस्थिति सापेक्ष होती है। रिक सामर्थ्य), वाग्वीयं (वाग्मिता), आध्यात्मिक बीर्य (आत्म- जैन आचार्यों की मान्यता रही है कि सामान्य परिस्थितियों में शोधन की सामर्म) । अन्यत्र वीर्य का वर्गीकरण आगारवीर्य और उत्सर्ग मार्ग का अवलम्बन किया जाना चाहिए किन्तु देशकाल, अनगारवीर्य के रूप में भी हुआ है। यहाँ आगारवीर्य का सात्पर्य परिस्थिति अथवा व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं क्षमता में किसी विशेष गृहस्थ जीवन के प्रतों के पालन की सामर्थ्य और अनगार या परिवर्तन के आ जाने पर अपवाद मार्ग का अवलम्बन किया मुनिजीवन के व्रतों के पासन करने की सामथ्र्य । पुनः वीर्य के जा सकता है । यहाँ इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समम लेता बालवीय, पंडितवीर्य और बालचितवीर्य, ऐसे विभाग भी किये चाहिए कि अपवाद मार्ग का सम्बन्ध केवल आवरण सम्बन्धी गये हैं। मूखों का पुरुषार्थ या प्रयत्न चालवीर्य है जबकि ज्ञानियों बाह्य विधि-निषेधों से होता है और आपवादिक परिस्थिति में का पुरुषार्थ पडितवीर्य है। पुनः प्रमादीजनों का पुरुषार्थ बाल- किये गये सामान्य नियम के खण्डन से न तो उस निमम का वीयं पोर बप्रमत्त साधकों का पुरुषार्थ पंडितबीर्य है। बालवीय मूल्य कम होता है और न सामान्य रूप से उसके आचरणीय सकर्म अर्थात् बन्धनकारक होता है जबकि पण्डितवीर्य अकर्म होने पर कोई प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक आचार के आन्तरिक मर्थात् मुक्ति का साधक होता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है पक्ष का प्रश्न है, जैनाचार्यों ने उसे सर्दय ही निरपेक्ष या उत्सर्ग कि जो सम्यष्टि और वीर्य सम्पन्न है उनका पुरुषार्थ शुद्ध के रूप में स्वीकार किया है। हिंसा का विचार या हिंसा की झोता है और वह कर्मफल से युक्त नहीं होता। वीर्याचार के भावना किसी भी परिस्थिति में नैतिक या आचरणीय नहीं मानी सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा वीर्यप्रवाद नामफ पूर्वग्रन्थ में थी, ऐसी जाती, जिस सम्बन्ध में अपवाद की चर्चा की जाती है वह सूचना ज्ञात होती है। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रतस्कन्ध के आठवें अहिंसा के बाह्म विधि-विषेधों से सम्बन्धित होता है। मान अध्याय में क्या आचारांग में यत्र-तत्र वीर्याचार की चर्चा देखी लीजिए कि हम किसी निरपराध प्राणी का जीवन बचाने के जा सकती है। अभिधान राजेन्द्र कोश (भाग ६, पृ० १३६७- लिए अथवा किसी स्त्री का शील मु.शित रखने के लिए हिंसा १४०६) में भी वीर्याचार की चर्वा उपलब्ध होती है। इसमें अथवा असत्य का सहारा लेते हैं तो इससे अहिंसा या सत्यकहा गया है कि अपने बल और वीर्य को न छिपाते हुए यथा- सम्भाषण का सामान्य नैतिक आदर्श समाप्त नहीं हो जाता। पाक्ति पुरुषार्थ (पराक्रम) करना वीर्याचार है। वस्तुतः ज्ञान, अपवाद मार्ग न तो कभी मौलिक एवं सार्वभौमिक नियम बनता
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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