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________________ १२६] चरणानुयोग-२ असंयत की गति सूत्र २१८-३०० गारं पि य आवसे नरे, अणुपुष्वं पाहि संजए। गृहवास में रहता हुआ जो मनुष्य क्रमशः प्राणियों पर संयम समया सम्पत्य सुम्बए, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥ रखता है तथा सर्वत्र समता रखता है वह मुव्रत्ती देवलोक में -सूय. सु. १, अ. २, उ. ३, गा. १३ जाला है। असंजयस्स गई असंयत की गति२६६. -जीये भंते ! असंजते अविरते अप्पडिहय-पत्र- २६६. प्र.-हे भगवन् ! असंयत, अविरत तथा जिसने पाप वसाय-पावकम्मे इसो चुए पेच्चा देवे सिया ? कर्मों को नहीं रोका एनं त्याग नहीं किया है, वह जीव इस लोक से मर पर क्या परलोक में देव होला है? उ6--गोया ! अत्थेगहए वे सिया, अत्थेगइए नो देवे उ०-गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव लिया। नहीं होता। ५०-से केणठेणं भंते ! एवं बच्चद अत्यगइए देवे सिया, प्र०-हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है कि कोई अत्यगइए नो देवे सिया? जीव देव होता है और कोई जीव देव नही होता है ? । ज०-गोयमा ! जे इमे जीवा गामाऽऽगर-नगर-निगम- उ.- गौतम ! जो ये जीव-(१) ग्राम, (२) आकर, रापहाणि-खेस-कन्नड-मसंब-दोणमुह-महनारसम-सशि- (३) नार. निगग (५१ रामभाली, (६) खेट, (७) कबंट, सेमु अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवा- (८) मउम्च, (6) द्रोणमुख (१०) पट्टण, (११) आश्रम, सेग अकामसीतासब-इंसमसग अव्हाणगसेष-जल्ल- (१२) सनिवेश आदि स्थानों में अकाम तृषा से, अकाम शुधा से, मल-पंकपरिदाहेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अकाम ब्रह्मचर्य पालन से, अकाम शीत उष्ण तथा डांस-मच्छरों अप्पाणं परिकिलेसंति, अपाणं परिकिलेसित्ता कास- के काटने के दुःख को सहने से, अकाम अस्नान, पसीना, जल्ल मासे कास किच्चा अनतरेसु वाणमंतरेसु वेषलोगेसु मैल तथा पंक द्वारा होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या देवत्ताए उववत्तारो भवति । बहुत समय तक अपनी आत्मा को फ्लेशित करते हैं, वे अपनी -वि. स. १, उ. १, शु. १२ आत्मा को क्लेशित करके मृत्यु के समय पर मर कर वाणध्यन्तर देवों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। आजीविय समणोवासगाणं णामाई, कम्मादाणाई, गई य-- आजीषिक श्रमणोपासकों के नाम, कर्मादान और गति३००, एए खालु एरिसगा समणोशसगा भवति, नो खलु एरि- ३००. ये इस प्रकार के ४६ भंगों से प्रत्याख्यान आदि करने सगा आजीविओवासगा भवति । बाले श्रमणोपासक होते हैं, किन्तु आजीविकोपासक ऐसे नहीं होते। आजीवियसमयस्सणं अयमझे पणत-अक्खीणपडिमोहणो आजीविक (गोशालक) के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि सम्वे सत्ता, से हता छत्ता भेत्ता पित्ता विलुपित्ता उद्द- समस्त जीव सचित्ताहारी होते हैं। इसलिए वे प्राणियों को वाता आहारमाहारेति । हनन, छेदन-भेदन करके, पंख आदि को लुप्त कर, चमड़ी आदि को उतार कर और जीवन से रहित करके खाते हैं। तत्य खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, सं जहा- उस आजीबिक मत में ये प्रमुख बारह आजीविकोपासक हैं उसके नाम इस प्रकार हैं१. ताले, २. तालपलबे, ३. उम्बिहे, (१) ताल, (२) तालमलम्ब, (३) उदविक, ४. संविहे, ५. अबबिहे, ६. उदए (४) संविध, (५) अवविध, (६) उदय, ७. नामुवए, . गम्मदए, ६. अणुबालए, (७) नामोदय, (८) नमोदय, (६) अनुपालक, १०. संखवालए, ११. अयं पुले, १२. कायरए। (१०) शंखपालक, (११) अयम्पुल, (१२) कातर । स्वेते दुवालस आजीविओवासग अरहतदेवतागा अम्मा. इस प्रकार बारह आजीविकोपासक हैं । इनका देव गोशालक पिउसुस्ससगा पंचफल-परिपकता, तं जहा-उबरेहि, बहि, है । वे माता-पिता की सेवा करने वाले हैं। वे पाँच प्रकार के बोरेहि, सतरेहि, पिसंखुहि, पलं-लहसणं-कंव-मूलविवज्जगा, फल नहीं खाते यथा-गुल्लर के फल, बड के फल, बोर, शहतूत
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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