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अन २६६-२६८
शौल रहित और शील सहित श्रमणोपासक के प्रशस्त-अप्रशस्त
गृहस्थ धर्म
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ज-एवं ते चेव एगणपण्ण भंगा भाणियन्वा ।
उ०-यहाँ केही ४६ भंग कहने चाहिए। पल-समनोवासगस्सन मंते ! पुष्यामेव धूलमुसायावे प्र०—हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पूर्व में स्थल
अपञ्चखाए भवा, से गं ते | पच्छा परुचाइक्त- मृषावाद का प्रत्याख्यान नहीं किया है, किन्तु बह बाद में प्रत्यामाणे कि करेति ?
ज्यान करता हुआ क्या करता है ? - एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसतं भगित, उ०—जिस प्रकार प्राणातिपात के विषय में एक सौ सतातही मुसाचायस्स वि भाणियन्वं ।
लीस भंग कहे गए है, उसी प्रकार भूषापार के सम्बन्ध में भी
एक सौ संतालीस भग कहने चाहिए। एवं अदिग्णादाणस्स वि । एवं थूलगस्स मेहुणस्स वि, इसी प्रकार स्थूल अवत्तादान के विषय में, एवं थूलगस्स परिग्गहस्म वि सीयाल भंगसतं इसी प्रकार स्थूल मैथुन के विषय में, इसी प्रकार स्यूल भाणियव्वं । -बि. स. ८, ज.५, सु. ६-८ परिग्रह के विषय में भी एक सौ सेंतालीस-एक तो संतालीस
अंकालिक भंग कहने चाहिए ।
गृहस्थ धर्म का फल-५
निस्सील सस्सील समणोवासगस्स पसत्था-अपसत्था- शीलरहित और शीलसहित श्रमणोपासक के प्रशस्त
अप्रशस्त२९७. तओ ठाणा णिसीसस्स णिध्वयस्स णिग्गुणस्स गिम्मेरस्त २६७. शील, बत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास
णिप्पसमक्खाण-पोसहोववासस्स गरहिता भवंति, तं जहा- से रहित पुरुष के तीन स्थान गहित होते हैं१. अस्सि लोगे गरहिते भवा,
(१) इहलोक (वर्तमान) गहित होता है, २. उवमाते गरहिते मवइ,
(२) उपपात (देवलोक तथा नर्क का जन्म) पहित होता है, ३, आयाती गरहिता प्रवइ ।
(३) आगामी जन्म (देवलोक या नरक के बाद होने वाला
मनुष्प या तिथंच का जन्म) गहित होता है । तओ ठाणा सुसीलस्स सुम्बयस्स सगुणस्स समेरस्स सपन्न- शील, व्रत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास से पखाण पोसहोववासस्स पसस्था भवति, तं जहा
युक्त पुरुष के तीन स्यान प्रशस्त होते हैं१. अस्ति लोगे पसत्मे भवा,
(१) इहलोक प्रशस्त होता है, २. उववाए पसरथे भवह,
(२) उपपात प्रशस्त होता है, ३.आजाती पसत्या भवा । ठाणं. अ. ३. उ.२, सु. १६६ (३) आगामी जन्म (देवलोक या नरक के बाद होने वाला
मनुष्य जन्म) प्रशस्त होता है । सुब्बई निहत्थ तस्स देवगई य--
सुव्रती गृहस्थ व उसकी देवगति-- २६८. अगारि-सामाइयंगाई, सबढी कारण फासए।
२६८. श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ धर्म की सामायिक के अंगों का पोसह वहओ परलं, एगरायं न हाबए । मन वचन काया से पालन करे। दोनों पक्षों में पथासमय
(अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या) को पौषध करे। यदि
पूर्ण पोषध न कर राके तो रात्रि पौषध तो अवश्य करे । एवं सिक्खा-समावस्ने, गिह-वाले वि सुथ्वए ।
इस प्रकार व्रत पालन रूप शिक्षा से सम्पन्न सुव्रती श्रावक मुच्चा छवि-पण्याओ गमछे जाख-सलोगयं ।।
गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देव--उत्त. अ. ५, मा. २३-२४ लोक में जाता है।