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________________ वत्र ३००-३०१ आराधक का स्वरूप आराधक-विराधक [१२७ अपिल्लंछिएहि अणपकमिस्नेहि गोणेहि, तस पाणविवजि- के फल, पीपल के फल, प्याज, लहसुन आदि कन्दमूल के त्यागी एहि खित्तेहि वित्ति कप्पेमाणे विहरति । होते हैं । तथा खस्सी न किये हुए और नाक नहीं नाथे हुए बैलों से, प्रस प्राणी से रहित भूमि के द्वारा आजीविका करते हैं। एए वि ताव एवं इच्छति. किमंग पुण जे इमे समणोवासगा जब इन आजीविकोपासकों का भी यह अभीष्ट है, तो फिर भवंति, ये जो श्रमणोपासक हैं, उनका तो कहना ही क्या ? जेसि भी कपात इमाई ५०जारस कमावणा सर्व करेत्तए जिनको कि ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से कराना था, कारवेत्तए वा, करें या अन्नं समणुजाणेत्तए, तं जहा- और करते हुए का अनुमोदन करना कल्पनीय नहीं है। वे कर्मादान इस प्रकार है१. इंगालकम्मे, २, वणकम्मे, ३. साडीकम्मे, (१) अंगार कम, (२) वनकर्म, (३) शाकटिक कर्म, ४. भाडाकम्मे, ५. फोडौकम्मे, ६. वंतवाणिज्जे, (४) भाटी कर्म, (५) स्फोटक कर्म, (६) दन्तवाणिज्य, ७. लखवाणिज्जे, ८. केसवाणिज्जे, ६. रसवाणिज्जे, (७) लाक्षणिज्य, (८) केशवाणिज्य, (९) रसवाणिज्य, १०. विसवाणिज्जे, ११. जंतपीलणकामे, (१०) विषवाणिज्य, (११) यंत्रपीडन कर्म, १२. निल्लंछणकम्मे, १३. दवग्गिदावणया, (१२) निर्लानक, (१३) दावाग्निदापनता, १४. सर-वह तलायपरिसोसणया, १५. असतीपोसणया । (१४) र बह तडाग-शोषणता, (१५) असतीपोषणता । चेते समणोवासमा सुक्का सुक्काभिजातीया भवित्ता गेसे ये बतपालक श्रमणोपासक मत्सरभाव रहित पवित्र कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेस वेवलोएमु देवताए उव- धार्मिक जीवन से मुक्त होक: मरण के समय मृत्यु प्राप्त करके बतारो भवति । वि. स. ८, उ. ५, सु. ६.१४ किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते है । आराधक-विराधक आराधक विराधक का स्वरूप-१ आराहगसल्व आराधक का स्वरूप३०१. प.-से नूर्ण भंते ! तमेव सच्चं गोसक जं जिणेहिं ३०१. प्र०—भन्ते ! क्या वही सत्य और असंदिग्ध है जो पवेइयं ? जिनेन्द्रों ने कहा है ? उ०-हंता गोयमा ! तमेष सच्चं णीसंक जं जिणेहिं उ.-हाँ गोतम ! वही सत्य और असंदिग्ध है जो जिनेन्द्रों पवेवितं । ने कहा है। १ (क) प्रतिमा धारण करने वाला आगधक कहलाता है। -दसा. द. ७, सु. १-२५ (ख) पाँच प्रकार का व्यवहार करने वाला आराधक है। --दसा.द.१०.सु.५ (ग) विवेकपूर्वक सत्यादि चारों भाषाओं का वक्ता भाराधक और अविवेकपूर्वक चारों भाषाओं का वक्ता विराधक होता है। -प्रज्ञापना पद ११, सु. ८६६ (घ) पापश्रमण (दोषसेबी) विगधक होता है और जो श्रमण ममाचारी का निर्दोष आचरण करता है वह आराधक होता है। (क) सूय. सु. १. अ. २, गा. १२६ (ख) उत्त. अ.१७, गा. १२ (1) आलोचना न करने वाला साधकः विराधक और आलोचना करने वाला साधक आराधक होता है।-ठाणं. अ. १, सु. ५६७ (च) उपशान्त न होने वाला साधक संयम की आराधना नहीं कर सकता है । जो उपशान्त होता है उसकी आराधना होती है। २ आ. सु. १, अ. ५, उ, ५. सु. १६८ |
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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