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________________ सूत्र २६४-२६६ श्रमणोपासकों को तीन भावनाएँ गृहस्थ धर्म [१२१ समणोवासगाणं तिविहा भावणा श्रमणोपासकों की तीन भावनाएं२६४, तिहि ठाणेहि समणोबासए महाणिज्जरे महापज्जवसाने २६४. तीन कारणों से श्रमणोपासक कर्मों का क्षय और संसार भवति, तं जहा का अन्त करने वाला होता है। यथा(१) कया णं अहं अप्पं वा बल्यं वा परिग्गहं परिचद- (१) कव में अल्प या बहुत परिग्रह का परित्याग करूंगा? सामि ? (२) कपाणं अहं मुंडे भक्त्तिा अगाराओ मणगारिय पञ्च- (२) कब मैं मुंडित होकर गृहस्थ से साधुपने में प्रवजित इस्सामि? होऊँगा? (३) कया गं अहं अपच्छिम-भारतिय-संसेहणा असणा- (३) कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना मूसिते मत-पाग-पडियाह पिखते पाओषयते काल अणवकख- से युक्त होकर भक्त-पान का परित्याग कर पादोपगमन संथारा माणे विहरिस्सामि? स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरू'गा। एवं समगसा सवयसा सकापसा पागउँमाणे समणीवासए इस प्रकार मन, वचन और काया से युक्त होकर प्रगट रूप महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । से भावना करता हुआ श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २१० सान वाला होता है । श्रावक के प्रत्याख्यान-४ पच्चखाण-पालण-रहस्सं प्रत्याख्यान पालन का रहस्य२९५. ५०-समणीवासगस्स भंते ! पुस्खामेव तसपागसमारंभे २९५. प्र०—हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही पच्चक्साते भवति, पुविसमारम्भे अपनचक्खाते अस-प्राणियों के समारम्भ का प्रत्यास्यान कर निया हो किन्तु भवंति से य पुरवि खणमाणे अन्नयर तस-पाणं विहि- पृथ्वीकाय के समारम्भ का प्रत्याभ्यान नहीं किया हो, उस सेम्जा, से णं भंते ! संघवं अतिसरति ? श्रमणोपासक से पुरानी खोदते हुए किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए तो हे भगवन् ! क्या उसके अत का उल्लंघन होता है ? उ०—णो इग? समठे, नो खलु से तस्स अतिवायाए उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि यह पस माउति । जीव के वध के लिए प्रवृत्त नहीं होता। प० - समणोवासगस्स गं भंते ! पुष्वामेव वणसतिसमारंभे प्र-हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही पच्चक्खाते भवति, पुवि-समारंभे अपच्चक्खाते बनस्पति के समारम्भ का प्रत्याख्यान कर लिया हो किन्तु पृथ्वी भवति, से य पुढवि खपमाणे अन्नयरस्स सक्खस्स के समारम्भ का प्रत्याख्यान न किया हो, उस श्रमणोपासक से मूलं छिदेज्जा, से गं भंते ! तं वयं अतिपरति ? पृश्वी खोदते हुए किसी वृक्ष का मूल छिन्न हो जाए तो हे भगवन् ! क्या उसका ब्रत भंग होता है ? उ०-णो इणठे समठे, नो खलु से तस्स अतिवायाए उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह थमणो ___आउद्दति । –वि. स. ७, उ. १, सु. ७-८ पासक उसके वध के लिए प्रवृत्त नहीं होता । पच्चक्खाणं सरूवं तस्स करणजोगाण य भंगा- प्रत्याख्यान का स्वरूप व उसके करण योगों के भंग२९६.५०-समणोवासगरस ग मते ! पुवामेव पूलए पागाइ- २६६. प्र. हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पूर्व में स्थूल वाए अपच्चखाए भवड, से गं भंते ! पच्छा पच्चा- प्राणातिपात का प्रत्याख्यान नहीं किया है तो है भगवन् ! यह इक्खमाणे कि करेति। बाद में प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है?
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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