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________________ १२०] परणानुयोग-२ ग्यारह उपासक प्रतिमाएं सूत्र २६३ (१) जाणं वा जाणं, (१) यदि जानता हो तो कहे-"मैं जानता हैं।" (२) अजाणं वा जो जाणं । (२) यदि नहीं जानता हो तो कहे-"मैं नहीं जानता हूं।" से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे जहणणं एगाहं वा इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, बुआई वा, तिआहं वा-जाब-उक्कोसेणं बस मासे विहरेज्जा। दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट दश मास सफ इस प्रतिमा का पालन करता है। से तं रसमा उवासग-पडिमा। यह दशवीं उपासक प्रतिमा है। अहाबरा एकादसमा उवासग-पडिमा--. अब ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंसम्ब-धम्म-कई यानि अवा-जाव-उद्दिष्ट-भत्ते से परिणाए वह प्रतिमाधारी श्राबक सर्वधर्मरुचिवाला होता है-पावत्-- भवद । बह उद्दिष्ट भक्त का परित्यागी होता है । से णं खुरमुंडए वा, संचसिरए वा, गहियायार-मंग्ग-नवस्थे बह क्षुरा के तिर का मुंड। कराता है अथवा केशों का जारिसे, लुंचन करता है, वह साधु का आचार, भण्डोपकरण और वेष भूषा ग्रहण करता है, समणाणं निग्गंधाणं धम्मे पण्णते तं सम्म काएणं फासेमाणे, जो श्रमण निग्रंन्थों का धर्म होता है, उसका सम्यक्त्तया पालेमाणे, पुरओ बुगमायाए पेहमाणे, बठूर्ण ससे पाणे काया से स्पर्श करता हुआ, पालन करना हुआ, चलते समय उद्घट्ट पाए रीएन्जा, साहटु पाए रीएन्जा, तिरिन्छं आगे चार हाथ भूमि को देखता हुआ, अस प्राणियों को देखकर वा पायं कटु रोएज्जा, सति परक्कमे संजयामेय परिक्क. उनकी रक्षा के लिए अपने पैर उठाता हुआ, पर संकुचित करता मेजा, नो उज्जुयं गच्छेज्जा। हुआ, अथवा तिरछे पर रखकर सावधानी से उलता है । यदि दूसरा जीव रहित मार्ग हो तो उसी मार्ग पर यतना के साथ चलता है किन्तु जीव सहित सीधे मार्ग से नहीं चलता। केवलं से नायए पेज्जबंधणे अयोचिछरने मवइ, एवं से केवल जाति-वर्म से उसके प्रेम-बन्धन का विच्छेद नहीं कप्पति नाय-विहिं एत्तए।' होता है इसलिए उसे ज्ञातिजनों के घरों में भिक्षा वृत्ति के लिए जाना कल्पता है। तस्स गं गाहायद-कुलं पिंजबाय-परियाए अणुप्पविदुस्स जब वह गृहस्थ के घर में भक्त पान की प्रतिज्ञा से प्रविष्ट कपति एवं वदित्तए होवे सब उसे इस प्रकार बोलना कल्पता है"समणोवासगस्स पडिमापरिवन्नास भिक्ख दलयह" "प्रतिमाघारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो।" तं च एमालवेणं विहारेण विहरमाणं केइ पासित्ता दिज्जा- इस प्रकार की चर्या से उसे विचरते हुए देखकर यदि कोई पूछे --- ५० के आउसो ! तुम बसम्वं सिया ? प्र. हे आयुष्मन् ! तुम कौन हो? तुम्हें क्या कहा जाए? 30-"समणोवासए पडिमा-पडिवण्णए अहमसी" ति उ० -- 'मैं प्रतिमाघारी श्रमणोपासक हूँ" इस प्रकार उसे बसवं सिया। ___ कहना चाहिए। से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहण्णेयं एगाहं या इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, तुआहं या तिमाहं वा-जाव-उपकोसणं एफ्फारसमासे दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कुष्ट ग्यारह मास तक विहरेज्जा। विचरण करे। से तं एकावसमा उवासग परिमा। यह ग्यारहवीं उपासक प्रतिभा है । एयाओ खलु तामओ थेरेहिं भगवतेहिं एक्कारस उवासग- स्थविर भगवन्तों ने ये ग्यारह ज्पामक प्रतिमाएं कही हैं। पडिमाओ पण्णत्ताओ। दसा. द. ६. सु. १७-३० १ सूत्र २६ एषणा समिति में देखें।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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