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________________ सूत्र ६५६-६६२ भनवस्थाप्य ग्लान भिक्षु को लघु प्रायश्चित देने का विधान तपाचार [३३१ १. माहम्मियाग तेषण करेमाणे, (१) साधर्मिकों की चोरी करने वाला, २. अण्पम्मियाणं तेगं करेमाणे, (२) अन्यधर्मिकों की चोरी करने वाला, ३. हत्थाताल दलयमाणे । - ठाणं, अ. ३, उ.४, सु. २०३ (३) हस्तताल देने वाला अर्थात् मारक प्रहार करने वाला। अणवठप्प-गिलाणस्स-लहुपायच्छित्त-दाण-विहाण- अनवस्थाध्य ग्लान भिक्ष को लघ प्रायश्चित्त देने का विधान६६.. अणबटुप्पं भिक्खं मिलायमाणं नो कप्पा तस्स गणावच्छेइ- ६६०. अनवस्थाप्य भिक्षु (नवमा प्रायश्चित्त को वहन करने एस्स निहितए। अगिताए तस्स करणिज्ज वेवावडिय', वाला साधु) यदि रोगादि से पीड़ित हो जाये (उस प्रायश्चित्त जाब-तओ रोगायंका विप्पमुक्को, तो पन्छा तस्स को वहन न कर सके) तो उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता अहालहसए नाम ववहारे पट्टवियरवे सिया । है किन्तु जब तक यह रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी - वव, उ. २. सु. ७ अग्लान भाव से वैयावृत्य करानी चाहिए। बाद में (म्णावच्छेदक) उस अनवस्थाप्य साधु को अत्यल्प प्रायश्चित्त दें। छेओवट्ठावणा पाच्छित्तारिहा छेदोपस्थापनीय प्रायश्चित्त के योग्य६६१. भिक्खू य गणामी अबक्कम्म ओहावेजा, से य इच्छष्जा ६६१. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर संयम का त्याग कर दे यो पि तमेव गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नस्थि पं और बाद में वह उसी गण को स्वीकार कर रहना चाहे तो तस्स तप्पत्तियं केइ छैए वा परिहारे वा, नन्नत्य एगःए उसके लिए केवल "छेदोपस्थापना" प्रायश्चित्त है इसके अतिछओवट्ठावणियाए। -वव. उ. १, सु. ३२ रिक्त उसे दीक्षा-छेद या परिहार तप आदि कोई प्रायश्चित्त पारंचिय पायच्छित्तारिहा पाराचिक प्रायश्चित्त के योग्य - ६६२. पंचहि ठाणेहि समय णिग्गये साहम्मिय पारंसितं करेमाणे ६६२. पाँच कारणों से श्रमण-निमंन्य अपने सामिक को पाराणातिषकमति, सं नहा ञ्चित्त (दसवां) प्रायश्चित्त देता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । जैसे-- १. फुले वसति कुलस्स मेवाए अम्भुढेता भवति । (१) जो साधु जिस कुल में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। २. गणे वसति गणस्स मेदाए अम्भुठेत्ता भवति । (२) जो साधु जिस गण में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। ३ हिसष्पेहि, (१) जो साधु कुल या गण के सदस्यों का पात करना चाहता है। ४. छिप्पेही. (४) जो कुल या गण के सदस्यों का एवं अन्य जनों का छिद्रान्वेषण करता है। ५. अभिक्सणं अभिक्खणं पसिणायतगाई जित्ता मति। (५) जो बार-बार अंगुष्ठ आदि प्रश्न विद्याओं का प्रयोग -अणं. अ. ५, उ. १, सु. ३९ करता है । तओ पारंचिया पण्णत्ता, त जहा पारान्चिक प्रायश्चित्त के पात्र ये तीन कहे गये हैं, यथा - १. वुठे पारंचिए, (१) दुष्ट पाराश्चिक, २. पमते पारंचिए, (२) प्रमस पाराश्चिक, ३. अत्रमन्नं करेमाणे पारंथिए । (३) परस्पर मैथुनसेवी पाराधिक। -ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २०३ (ख) ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २०३ १ (क) काप. उ. ४, सु. ३ २ कप्प. उ. ४, सु.२
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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