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________________ सूत्र ६५२-६५३ आलोचना न करने का फल सपाचार [३२३ मालोयणा अकरण फलं आलोचना न करने का फल६५२. मायो मायं कटु अगालोइय-अपडिक्कते कालमासे काल ६५२. कोई मायावी माया करके उसकी मालोचना या प्रतिक्रमण फिच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, विये बिना ही काल-मास में काल करके किसी देवलोक में देव तं जहा-जो महिहिएम-जावणो चिट्टितिएम से ण तत्थ रूप से उत्पन्न होता है, किन्तु वह महाऋद्धि वाले–यावत् - देवे भवद, णो महिडिहए-जावणो चिरदिइए। दीस्थिति वाले देव लोक में उत्पन्न नहीं होता। बह देव होता है, किन्तु महाऋषि वासा-यावत-दीर्घ स्थिति बाला देव नहीं होता । जावि य से तस्य बाहिरमंतरिया परिसा भवति, साविय वहाँ देवलोक में उसकी जो बाह्य और याभ्यन्तर परिषद पंणो आढाति, णो परिज्जाणाति, गो महरिहेणं आसणेणं होती है, वह भी न उसको आदर देती है, ने उसे स्वामी के रूप उबणिमंतेति, भासं पि य से भासमाणस्स-जाव-पत्तारि पंच में मानती है और न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के देवा असा चेव अम्मति "मा बई देवे ! भासज- लिए निमन्त्रित करती है। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता माता।" है, तब चार पाँच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते है और कहते हैं - "देव ! बहुत मत बोलो, बहुत मत बोलो।' से गं ततो देवलोपाओ आजक्सएणं, भवरखएणं, लितियखएणं, पुनः वह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर अणंतरं चयं घइत्ता इहेव मागुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई देवलोक से व्युत होकर यहीं मनुष्य भव में जो ये अन्तकुल हैं, भवंति, तं जहा-बंतकुलाणि वा, पंतकुलाणि वा, तुच्छ- प्रान्तकुल हैं, तुच्छकुल हैं, दरिद्रकुल हैं, भिक्षुकुल हैं, कृपणकुल कुलाणि दा, दरिबकुलाणि वा, मिक्वागकुलाणि वा, किवण- हैं, या इसी प्रकार के अन्य हीन कुल हैं, उनमें मनुष्य के रूप में कुलाणि वा, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति । उत्पन्न होता है। से णं तत्य पुमे भवति तुरुवे दुबम्णे बुग्गंधे पुरसे बुफासे वहां वह कुरूप, कवर्ण, दुर्गन्ध देह वाला, अनिष्ट रस और अणि? अंकते अप्पिए अमणुपणे, होगस्सरे, दीणस्सरे, कठोर स्पर्श बाला पुरुष होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अणिठ्ठस्सरे, अंकतस्सरे, अप्पियस्सरे, अमणण्णस्सरे, अम- अमनोज्ञ' और अमनोहर होता है। वह हीनस्वर, दीनस्वर, णामस्सरे अणएक्जक्यणे पच्चायाते । अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञ स्वर, अरुचिकर स्वर और अनादेय वचन वाला होता है। जावि य से तत्य बाहिरंगभंतरिया परिसा भवति, सावि य वहां उसकी जो बाह्य आभ्यन्तर परिषद होती है वह भी को आवाति-जाव-चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चैव अम्भु- उसका न आदर करती है—यावत्-चार-पांच मनुष्य बिना रसि "मा बहुं अजउत्तो। भासउ-मास" कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं-"आर्यपुत्र ! बहुत मत -ठाणं. अ. सु. ५६७(च) बोलो, बहुत मत बोलो।" आलोयणा करण फलं--. आलोचना करने का फल६५३. मायी णं मायं कट्ट आलोहय पडिक्कते-जाव-चिरदिति- ६५३. कोई मायावी माया करके उसको आलोचना प्रतिक्रमण एसु । से गं तस्य देवे भवति, महिदिए-जाव-विदितिए। कर-यावत्-दीर्घ स्थिति वाले देव लोक में उत्पन्न होता है। वहाँ वह महाऋद्धि वाला-पावत्-दीर्घ स्थिति वाला देव होता है। हार-विगाइय वच्छे फडक-तुडित थंभिस-भुए अंगव-कुंडल- उसका वक्षःस्थल हार से सुघोभित होता है, वह भुजाओं में मटू-गडतल-कण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणे, विचित्तवत्या- कड़े त्रुटित और बाजूबन्द पहने रहता है। उसके कानों में चंचल भरणे, विनिसमालामउसी कल्लाणग-पवर-वत्थ-परिहिते, तथा कपोल तक कानों का स्पर्श करने वाले कुण्डल होते हैं । कहलाणग-पवर-गंध मल्लागसेवणंथरे-मासुरबोंबो पलंब-वण- वह विचित्र हस्ताभरणों, विचित्र वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं मालधरे, बिब्वेणं और सेहरों वाले मांगलिक एवं उत्तम वस्त्रों को पहने हुए होता है, बह मांगलिक श्रेष्ठ सुगन्धित पुष्प और विलेपन को धारण किये हुए होता है । उसका शरीर तेजस्वी होता है, वह लम्बी लटकती हुई मालाओं को धारण किये रहता है। वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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