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वरगानुयोग-३
बालोचना करने का फल
सूत्र ६५३.६५५
वणेणं, विश्वेणं गंधेणं, विश्वेणं रसेणं, विरुषेणं फासेणं, रस, दिव्य स्पर्ण, दिव्य संचात, दिव्य संस्थान और दिव्य ऋद्धि विश्वेणं संघातेणं, विरुवेणं संठाणेग, विवाए-बहीए, विवाए से युक्त होता है। वह दिव्य श्रुति, दिया प्रमा, दिव्य कांति, जुईए, दिवाए पाए, दिवाए छायाए, विश्वाए बच्चीए, दिव्य अचि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को विश्वे तेएणं, विवाए लेसाए, इस विसामो उम्जोवेमाणे, उद्योतित करता है, प्रभासित करता है, वह नाट्यों गीतों तया पमासेमाणे, महयाहत-गट्ट-गीत-यावित-संती-तल-ताल-सुजित- कुशल वादकों के द्वारा जोर से बजाये गये बादित्र, तंत्री, तल, घण-मुहंग-पडुप्पवाइय-शेण-विष्याई भोगभोगाई मुंजमाणे ताल, त्रुटित, धन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त दिव्य विहरद।
भोगों को भोगता हुआ रहता है। जावि य से तस्थ बाहलसतिया परिका भवति, साबिर हाँ बसपी जो बाह्य आभ्यन्तर परिषद होती है वह भी गं आडाइ-जाव-सत्तारि पंच देवा अगुप्ता व अग्भुट्ठति उसका आदर करती है-यावत् -चार पांच देव बिना कहे ही "ब. देवे | भासउ मास।"
खड़े होकर कहते हैं-"देव ! अधिक बोलिए और अधिक
बोलिए।" से गं ताओ देवलोगाओ आउखएणं-जाव-बहत्ता इहैव पुनः वह देव आयुक्षय-यावत्-देवलोक से च्युत होकर माणुस्सए मवे जाई इमाई फुलाई भवंति-अदाई विलाई यहाँ मनुष्य भव में सम्पन्न दीप्त विस्तीर्ण और विपुल भवन, विस्थिष्ण विउल-भवण-सयणासगं-जाणावाहणाई बधण- शयन, आसन, यान और वाहन वाले, बहुधन, वहु सुवर्ण और महज़ायरूप-रययाई आयोग-पओग-संपउत्ताई. विच्छडिजय बहु चांदी वाले आयोग और प्रयोग में संप्रयुक्त अवशेष प्रचुर पउर भलपापाई, रासीबास-गो-महिस-गवेलय-प्पभूयाई, भक्तपान का सदा त्याग करने वाले, अनेक दासी-दास गाय-भैंस, बहुजनस्स अपरिमूताई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित पन्यायाति।
ऐसे उच्च कुलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है। मेणं तत्थ पुमे भवति सुख्ने, सुवणे, सुगंधे, सुरसे, मुफासे, वहाँ वह सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध और सुस्पर्श वाला होता है। अतु, कते, पिए, मणण्णे, मणाभे, अहीणस्सरे, अदीगस्सरे, वह हष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन के लिए गम्य होता है। इस्सरे, कंतस्सरे, पिपस्सरे, मपुग्णस्सरे, मगामस्सरे, वह उच्च स्वर, प्रखर स्वर, इष्ट स्वर, कान्त स्वर, प्रिय स्वर, आवेजवयणे पच्चाया।
___ मनोज्ञ स्वर, कचिकर स्वर और आदेय वचन वाला होता है। जावि य से तस्य बाहिरभतरिया परिसा भवति, सा वि वहाँ पर उसकी जो बाह्य आभ्यन्तर परिषद होती है, वह यगं आढाति-जाब-चत्तारि पंच जणा अणुसा देव अग्मुट्ठति भी उसका आदर करती है-यावत--चार पाँच मनुष्य बिना "बहुअज्जउत्ते ! भास-मासउ।"
कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं-“हे आर्यपुत्र ! और --ठाणं. २, ८, सु. ५६७ () अधिक बोलिए और अधिक बोलिये ।" आलोयणा फले
आलोचना करने का फल६५४. ५०-आलोयणाए गं पन्ते ! जौवे कि अणय ? ६५४, प्र.-भन्ते ! आलोचना करने से जीव क्या प्राप्त
करता है? उ.-झालोयणाए णं मायानिया मिच्छासणसल्लागं उ.-भालोचना से वह अनन्त संसार को बढ़ाने वाले,
मोक्खमग्गविग्घाणं अणन्तसंसारवणार्ग उदारणं मोक्षमार्ग में विश्न उत्पन्न करने वाले, माया, निदान तथा मिथ्या करेइ । उज्जभावं च पं अणयइ । उज्जुमावपडियन्ने दर्शन-गल्य को निकाल फेंकता है और ऋजु-भाव को प्राप्त होता पप जोवे अमाइ इस्योयेय-नपुंसगयेयं च न भन्धद। है, ऋजु भाव को प्राप्त हुआ व्यक्ति अमायी होता है, इसलिए पुष्वबर्डचणं निजरेइ।
वह स्त्री वेद और नपुंसक बेद कम का बन्ध नहीं करता और
-उत्त. अ. २६, सु. ७ यदि वे पहले बन्धे हुए हों तो उनका क्षय कर देता है। पलिउंचिय-अपलिउंचिय-आलोयगस्स पायच्छित वाण कपट सहित तया कपट रहित आलोचक को प्रायश्चित्त विही
देने की विधि१५५. जे सिक्लू मासिव परिहारदाग परिसेवित्ता आलोएक्जा, ६५५. जो भिक्षु एक बार मासिक-परिहारस्थान की प्रतिलेखना