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________________ २१६] चरणानुयोग-२ अनवस्थाप्य और पारांषिक मिनु की उपस्थापना सूत्र ४४७-४५० सच्चेव गं से तिवास परियाए समणे निगये-नो बायार- यह (तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निग्रन्थ) यदि कुसले, नो संजमकुसले, नो पवयणकुसले, नो पत्तिकुसले, आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न नो संगहकुसले, नो उवगह कुसले, खयापार, भिनायारे, हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट माचार वाला हो, सबलायारे, संफिसिाट्ठयारे, अप्पमुए, अप्पागले नो कम्पड़ अल्पश्रत एवं अल्प आगमज्ञ हो तो उसे उपाध्याय पद देना उमझायत्ताए उद्दिसित्तए। वब. ज ३, सु. ३-४ नहीं कल्पता है। अणषटप्प-पारंचिय-भिक्खस्स उपट्टावणा अनवस्थाप्य और पारांचिक भिक्ष की उपस्थापना४४८. अणवट्टप्पं मिल अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयरस ४४८. अनवस्थाप्य नामफ नौवें प्रायश्चित्त के पात्र भिक्ष को उबट्टावित्तए। गृहस्थ वेष धारण कराए बिना पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। अणवटुप्पं भिखं गिहिभूयं कप्पर तस्स गणावच्छंद्रयम्स अवस्थाप्य भिक्षु को गृहस्थ वेष धारण कराके पुनः संयम उबट्टावित्तए। में उपस्थापन करना गणात्रच्छेदक को कल्पता है। पारवियं भिक्खु अगिहिभूयं नो कप्पद तस्ल गणावच्छेइयस्स पारंचित नामक दगावे प्रायश्चित्त के पात्र भिक्षु को गृहस्थ उवट्ठा वित्तए। वेष धारण कराए बिना पुनः संयम में उपस्थापना करना गणा. बच्छेदक को नहीं कल्पता है । पारचिय भिम मिहिमूयं मार रस गमानित भिक्ष को नहस्थ वेष धारण कराके पुनः संयम में उबदाविश्तए। उपस्थापन करता गणावच्छेदक को कापता है। अगावटुप्पं मिण पारंघियं वा ,मिमखं अगिहिभूयं वा गिहि- अनवस्थाप्य भिक्षु को और पारंचित भिक्षु को (परिस्थितिभूयं वा, कप्पह तस्स गणावच्छे यस्स उबट्टावितए, जहा तस्स वश) गृहस्य का वेष धारण कराके या गृहस्थ का वेष धारण गणस्स पत्तियं सिया। -व. उ. २, मु. १५-२२ कराए बिना ही पुन. संयम में उपस्थापित करना गणावच्छेदक को कल्पता है जिससे कि गण का हित संभव हो । आयरिय अणिस्साए विहरण णिसेहो आचार्य के नेतृत्व के बिना विचरने का निषेध४४६. निग्गंधस्स गं नव-हर-तरुणस्स आयरिय-उवझाए वीस- ४४६. नवदीक्षित, बालक या तरुण निर्ग्रन्थ के आचार्य और भेजा । नो से कप्पद अणायरिय-उपजमाइए होत्तए। उपाध्याय की मृत्यु हो जाये तो उसे आचार्य और उपाध्याय के बिना रहना नहीं कल्पता है। कम्पद से पुन्य आयरियं उहिसावेत्ता तओ पच्छा उबज्माय । उसे पहले आचार्य की और बाद में उपाध्याय की निश्रा अधीनता स्वीकार करके ही रहना चाहिये । प० • से किमाहू मते ? प्र-है भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? ३०-दु-संगहिए समगे निग्गंथे, तं महा... उल-श्रमण निग्रंन्य दो के नेतृत्व में ही रहते हैं - १. आयरिएण, २. उपमाएण य । यथा-(१) आचार्य (२) उपाध्याय । --दव'. उ. ३. सु. ११ गणधारण अरिहा अणगारा गणधारण करने योग्य अणगार४५०. छहि ठाणेहि संपण्णे अणगारे अरिहति गणं धारिस्तए, ४५०. छह स्थानों से सम्पन्न अनगार गण को धारण करने में तं जहा-- समर्थ होता है, यथा१. सहती पुरिस जाते, २. सच्चे पुरिसमाते, (१) श्रद्धाशील पुरुष, (२) गत्यवादी पुरुष, ३. मेहाची पुरिसजाते, ४. बहुस्सुते पुरिसजाते, (३) मेधावी पुरुष, (४) बहुश्रुत पुरुष, ५. सत्तिम ६. अप्पाधिकरणे, (५) शक्तिशाली पुरुष, (६) कलहरहित पुरुष । - ठाणं. अ. ६, सु. ४७५ गणधारण विहि-णिसेहो मणधारण करने का विधि-निषेध४५१. भिखू य इम्छेज्जा गणं धारेत्तए, भगवंच से अपसिष्ठम्ने ४५१. यदि कोई भिक्षु गण को धारण करना (अग्रणी होना) एवं से नो काप गणं धारित्तए । पाहे ओर वह मूत्र शान आदि योग्यता से रहित हो तो उसे गणधारणा करना नहीं कल्पता है । .
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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