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________________ सूत्र ७८६-७०८ अप्रमत्त भाव से करणीय कृश्य धीर्याशर [३९३ ण हम सबक सिविलेह, अहिज्जमाणेहि, गुणासाएहि, वंक- समत्व का आचरण करना उन साधका द्वारा शक्य नहीं है समावारेहि पमतेहिं गारमायसहि । जो मन्द पुरुषार्थी हैं, पदार्थों में स्नेह रखते हैं, विषय लोलुप हैं, मायाचारी हैं, प्रमादी हैं और गृहवास में लीन हैं। मुणी मोणं समादाय धुणे कम्म सरीरगं । किन्तु मुनि संयम ग्रहण करके स्थूल और सूक्ष्म शरीर को कृश करने में पुरुषार्थ करे। पंतं लुहं सेवेति वीरा सम्मसदसिणो। समत्वदर्शी वीर मुनि प्रान्त (बासी या बचा खुचा थोड़ा सा) और रुक्ष (नीरस, विकृति-रहित) आहारादि का सेवन करते हैं। एस ओहंतरे मुणी तिणे मुसे विरते वियाहित । ऐसे मुनि जन्म-मृत्यु के प्रवाह को पार करने वाले होते हैं --आ सु १. अ. ५. उ. ३. सु. १६१ वे ही मुनि तीर्ण-मुक्त और विरत कहलाते हैं। अपमत्तभावेण करणिज्ज किच्चाई अपमन्तु भाव मे मीरा कृल-.. ७८७. अहिं ठाहिं सम्मं घडितब्ब जतित्तवं, परपक्रमितवत्रं, ७७. आय स्थानों में साधक सम्यग् आचरण करे, सम्यक् अस्ति च पं अ? जो पभाएतम्वं भवति । प्रयत्न करे, सम्यक् पराक्रम करे और इन आठों स्थानों में कुछ भी प्रमाद नहीं करे। १. असुयाणं अम्माणं सम्म सुणणताए अम्मुट्ठतब्ध प्रति । (१) अश्रुत धर्मों को सम्यक् प्रकार से सुनने के लिए जाग २. सुताएं धम्माणं ओपिण्हणयाए. उवधारणयाए अमुट्ठ (२) सुने हुए धर्मों को मन से ग्रहण करे और उनकी स्थिरसम्वं भवति । स्मृति के लिए जागरूक रहे। ३ णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताए अन्? तन्वं भवति । (३) संयम के द्वारा नवीन कर्मों का निरोध करने के लिए जागरूक रहे। ४. पोराणार्ग कम्माणं तवसा विगिधगयाए, विसोहणमाए (४) तपश्चरण के द्वारा पुराने कर्मों को पृथक् करने और अग्भट्ठतव्वं भवति । विशोधन करने के लिए जागरूक रहे । ५. असंगिहीय परियणस्स संगिहणयाए अम्मुटु यच्वं भवति । (५) असंगृहीत परिजनों (शिष्या) का संग्रह करने के लिए जागरूक रहे। ६. सेहं आयारगोयरं पाहणताए अम्म? यव्वं भवति । (६) मोक्ष (नवदीक्षित) मुनि को आचार-गोचर का सम्यक बोध कराने के लिए जागरूक रहे । ७. गिलाणस्स अगिलाए यावच्चकरणयाए मामुट्ठयव्यं (७) ग्लान साधु की ग्लानि-भाव से रहित होकर बयावृत्य भवति। करने के लिए जागरूक रहे। ८. साहमियाणधिकरणसि उप्पणसि तस्थ अपिस्सितो- (4) सार्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न होने पर "ये मेरे यस्सिते अपक्सग्गाही ममत्वावमूने 'कहं णु साहम्मिया साघमिक किस प्रकार गन्द, कलह और तू तू मैं-मैं से मुक्त हों" अप्पसदा अप्पझंझा अप्पतुमंतुमा उवसामणताए' अचमुटुयन्वं ऐसा विचार करते हुए राग-द्वेष से रहित होकर किसी का पक्ष भवति । -ठाणं. अ. ८. सु. ६४६ न लेकर मध्यस्थ भाव को स्वीकार पर उसे उपशान्त करने के लिए जागरूक रहे। आणाणुसरणं जवएसो आज्ञानुसार आचरण करने का उपदेश - ७८३. अणाणाए एगे सोक्टाणा, आगाए एगे गिरवट्ठाणा एतं ते ७८. कुछ साधक अनाज्ञा में उद्यमी होते हैं किन्तु आशा में मा हो । उद्यमी नहीं होते हैं। यह अबस्था तुम्हारे जीवन में न हो तीर्थकर भगवान का यह आदेश है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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