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चरणानुयोग-२
परिग्रह-परिमाण-प्रत का स्वरूप और अतिधार
सूत्र २७८-२८१
२. अपरिहियागमणे,
(२) विवाह के पूर्व स्त्री के साथ गमन करना, ३. अणंगकीडा,
(३) अन्य अंग से काम क्रीडा करना, ४. परविवाहकरणे,
(४) अन्य का विवाह कराना, ५. काममोगतिण्याभिलासे ।। -आव. स. ६,सु.७२-७३ (५) काम भोग की तीन अभिलाषा करना । परिग्गह-परिमाणस्स सहवं अइयारा य
परिग्रह-परिमाण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२७६. अपरिमियपरिगह समणोवासओ पचममाति, इच्छापरिमाणं २७६. श्रमणोपासक अपरिमित परिग्रह का प्रत्याख्यान करता है उपसंपज्मा ।
एवं इच्छाओं का परिमाण करता है। से य परिगहे बुविहे पत्ते, तं जहा
परिग्रह दो प्रकार का कहा गया है । जैसे१. सचित्तपरिग्गहे य, २. अविसपरिगहे य ।
(१) सचित्त परिग्रह, (२) अचित्त परिग्रह । इच्छा परिमाणस्स समणोवासएणं इमे पंच अहयारा आणि- श्रमणोपासक को इच्छा-परिमाण-व्रत के पांच प्रमुख मतियम्वा, न समायरियम्वा । तं जहा
चार जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे
इस प्रकार हैं१. खेत्त-वत्थु-पमाणाइक्कमे ।
(१) घर तथा बुली भूमि के परिमाण का अतिक्रमण करना । २. हिरण-सुवष्ण-पमाणाइक्कमे ।
(२) सोना-चांदी के परिमाण का अतिक्रमण करना। ३. घण-धम्न-पमाणाइक्कमे ।
(३) धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण करना । ४. दुपय-बउप्पय-पमाणाइएकमे।।
(४) द्विपद-चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण करना । ५. कुविय-पमाणाइक्कमे । -आव. अ. ६, सु. ७४-७५ (५) अन्य सामग्री के परिमाण का अतिक्रमण करना । दिसिक्य सहवं अइयारा य
दिशावत का स्वरूप और अतिचार - ८०. दिसिवए तिबिहे पन्नते । तं जहा
२८०. दिन्नत तीन प्रकार के कहे गए हैं१. उपखदिसिपए, २. अहीदिसिवए,
(१) ऊर्ध्व दिशापमाण व्रत, (२) अधोदिशा प्रमाण व्रत, ३. तिरिदिसिवए।
(३) तिर्यक-दिशा प्रमाण व्रत । विसिवपस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियब्या, श्रमणोपासक को दिशावत के पांच प्रमुख अतिचार जानना न समायरियण्वात जहा
चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार है१. उदिसिपमाणाइक्कमे ।
(१) ऊँची दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना । २. अहोदिसिपमाणाइक्कमे ।
(२) नीची दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना । ३. तिरियविसिषमागाइक्कमे ।
(३) तिरछी दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना। ४. खेतो ,
(४) एक दिशा में घटाकर दुसरी दिशा में क्षेत्र बढ़ाना । ५. सइअंसरवा ।
आव. अ. ६. सु.७६-७७ (५) क्षेत्र परिमाण के भूलने पर आगे चलना । उवभोग-परिभोग-परिमाणस्स सहवं अइयारा य-- उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२८१. उवभोगपरिभोगबए विहे पण्णत्ते, सं जहा
२८१. उपभोग-परिभोग दो प्रवार का कहा गया है--- १. भोयणओ य, २. कम्मओ य ।
(१) भोजन की अपेक्षा से, (२) कर्म को अपेक्षा से। भोयणओ समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियस्वा न भोजन की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने न समायरियडवा, तं जहा
चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं१. सचित्ताहारे,
(१) प्रत्याख्यान उपरांत गचित्त का आहार करना । २. सनित्तपडियाहारे,
१२) सचित्त संबद्ध का आहार करना । ३. अप्पर लिओसहिमक्खणया,
(३) अपक्त्र को पक्व समझकर जाना ।
२
उया. अ.१,सु. ४६ ।
१ ३
उवा. अ.१, सु. ४८ । स्वा. अ.१, सु. ५० ।