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________________ सूत्र ८१ पुरवी न लणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए । अगणित जहा मुनिसियं तं न जलाए । अनिलेप्य न वीए वीयावए हरियाणि न छिंदे न छिदावए । वीवाणि सया विवज्जयंतो, सचिव नाहारए जे स भिक्खू || वहणं तस-यावराणं होइ विनिश्वा हा उद्देसिन मुंजे, नो विपद न भाव जे सभ । रोम नावपुरुषपणे, मशगे मन छपिकाए पंच फासे महत्ववाई पंचासबसंवरे जे स मिश् ॥ चत्तारि दमे का कांग अनि भिक्षु के लक्षण सम्मट्ठी सा वपूढे अत्यि गाणं तवे संजय ताण पुराणपावणं, मणदमकाय सुसंबुठे जे स भिक्खू || दस. अ. १०. गा. १०७ न यह कह कहेज्जा, न य कुप्ये निहूइं दिए पते । संजय जोगते सनि ॥ दम. अ. १०. गा. १० उहिम्मि नमुछिए अगि मप्राप - हुए ( अपने निमित्त) का बना हुआ नहीं खाता तथा जो स्वयं न पकाता है और न दूसरों से पकाता है वह भिक्षु है । जो ज्ञातपुत्र के वचन में श्रद्धा रखकर छह काय के जीवों को आत्मा के समान समझता है, पाँच महाव्रतों का पालन करता है औरों का पराग करता है-यह है। जो नारों कषायों का परित्याग करता है, निर्ग्रन्यन्यवचन में पो परिस मिक्सू ॥ नियमित रूप से प्रवृत्ति करने वाला है, घन-सोना-नवी आदि से रहित है और विश्रय आदि) गृहस्य के कार्यों का त्यागी - भिक्षु है। जो सम्यदर्शी है, रादा अमूह है, ज्ञान, तप और संयम के अस्तित्व में आस्थावान है, जो तप के द्वारा पुराने पापों को नष्ट कर देता है और मन वचन तथा काया से सुसंवृत है वह भिक्षु है । जो कलहकारी कथा नहीं करता किसी पर क्रोध नहीं करता इन्द्रियों को चंचल नहीं होने देता, सदा प्रशान्त रहता है, संयम में तीनों योगों को नियमित रूप से जोड़ता है. उपशान्त है, दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता वह भिक्षु है। वो भूमि वस्त्रादि उपधि में समस्थ नहीं रखता हूं पदार्थों में आसक्त नहीं होता है, अज्ञात कुलों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है, संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है, प विक्रय और निधि से विरत है, सब प्रकार के कर्म बंध के स्थानों से रहित है मह भिक्षु है। अलोल भिक्खू न रसेषु गिद्धे, इडिपसचारण पत्ते पुलनिष्पुलाए । विरए सथ्य-संगावगए य ने स भिक्खू ॥ न परं वज्जासि अयं कुसीले અભિય छं चरे जीविय नाभिखे । जो भी है, रसों में वृद्ध नहीं है, अज्ञात बुदों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेता है, असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता है, ऋद्धि, सत्कार और पूजा की आकांक्षा नहीं रखता है, ar ठिया अणि जे स भिक्खू | स्थितात्मा है, अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता है - वह भिक्षु है । प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य पाप पृथक् पृथक् होते हैं - ऐसा जानकर जो दूसरे को "यह कुशील हैं" ऐसा नहीं कहता है और जिससे दूसरा कुपित ही ऐसी बात नहीं कहता है, जो अपन विशेषताओं पर अहंकार नहीं करता है वह भिक्षु है। जेणश्नर कुप्पेज्ज न तं यज्जा जान सक्ने संयमी जीवन २३ जो पृथ्वी का खनन न करता है और न कराता है, जो शीतोदक (सचित्त जल ) न पीता है और न पिलाता है, सुतीक्ष्ण शस्त्र के समान अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है । क् - स. अ. १०, मा. १६-१८ जो पंखे आदि से हवा न करता है और न कराता है, जो हरित का देश्न न करता है और न कराता है, जो बीजों के स्पतं आदि का सदा त्रिवर्जन करता है, जो सत्रित पदार्थो का आहार नहीं करता है- वह भिक्षु है। भोजन बनाने में पृथ्वी, तृण और काष्ठ के आश्रय में रहे स्वायर जीवों का वध होता है, अतः जो बौद्देशिक
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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