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________________ २४] पवेपए अजप नियम जे कुसीलिंग धरणानुयोग – २ न देहवासं असुई छिदितु जाईपरणरस संघर्ष जहिज्ज मोणं परिरमामि समिन्धम्भ पन्ने पन्त रायोवरमं परेशन अक्कोसदहं अध्यतामणे महामुनी, धम्मे दिओ ठावयई परं पि । अभिभूय न मावि हासं कुहए जे स भिक्खू ॥ असासर्य · सया च निच्च हिमट्टिया बंधनं, उवे भिक्लू अनाथमं गई ॥ - दस. अ. १०, गा. २०-२१ अवरणपणे सयणासणं अंगवियारं सहिए उज्जुकडे नियाणछिन् । कामकामे, यस परिस्वए सभ बिरए चित्तु ढे वी जे कहिए ॥ धीरे मुगी परे लाई ममायते । अपहर J जे कसिणं अहियासए स भिक्खू || नो सक्कियमिच्छाई न पूयं से संजए सुकाए देवर। भइत्ता, सोविवि सम असं पहिले जे सि अहिया । नो वि य वन्दणगं कुओ पसंसं । बरसी सहिए यस भिक्लू ।। जीवियं, जेण पुर्ण जहाद मो नरमार पड़े aur aयस्सी, नय कोमल ने मिश् ।। छिन्नं सरे मोर्म, अन्तलिक्वं सुमिणं, लक्खणदण्डयत्युविज्जं । विजय, जो वाहनोई सभ सरस्स मिक्षु के लक्षण , मु जो महामुनि शुद्ध धर्म का उपदेश करता है स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है, प्रब्रजित होकर कुशल आचार का वर्जन करता है, जो दूसरों को लाने के लिए कुहलपूर्ण चेष्टा नहीं करता है-वह भिक्षु है। अपनी आत्मा को सदा हित में स्थापित रखने वाला भिक्षु अनुनय नश्वर देवास को सदा के लिए स्थान देता है और वह जन्म-मरण के बन्धन को काटकर मोक्ष को प्राप्त कर लेजा है। "धर्म को स्वीकार कर मुनि-यत का आचरण करूँगा"-.. वो ऐसा करता है, ज्ञानादि से सहित है, जिसका अनुष्ठान सरलता से युक्त है, निदान से रहित है, जो परिचय का त्याग करता है काम-भोगों की अभिलाषा को छोड़ चुका है अथवा मोक्ष की कामना करने वाला है। अज्ञात कुल में भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरण करने वाला है। जो राग से रहित और सदनुष्ठान पूर्वक विचरने वाला, असंयम से निवृत्त, विद्वान्त का वेता, आत्मरक्षक, बुद्धिमान हो तथा परीषों को जीतकर सर्व प्राणियों को अपने समान देखने वाला हो और किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता है-वह भिक्षु है। जो धीर मुनि आक्रोश और वध आदि परीषहों को अपने कर्मों का फल जानकर शान्त भाव से सहन करता है, नित्य आत्मगुप्त होकर सदनुष्ठानपूर्वक विचरण करता है तथा आकुलता और हर्ष से रहित होकर सब कुछ सहन करता हैवह है। साधारण शय्या और आसन आदि प्राप्त होने पर तथा सद गर्मी, डांस और मच्छरों का उपन होने पर ले आकुलता और リ हर्ष से रहित होकर सब कुछ सहन करता है यह भिक्षु है। जो सत्कार, पूजा और वन्दना की इच्छा नहीं करता और को भी नहीं चाहता। जो संयत सुनती, तपस्वी ज्ञानादि युक्त है तथा आत्म-वेषक है-वह भिक्षु है । जिसके संयोग मात्र से संयम जीवन छूट जाता है और सम्पूर्ण मोह की प्राप्ति हो जाती है वैसे स्त्री पुरुष की संपति को जो उपस्वी सदा के लिए छोड़ देता है और को प्राप्त नहीं होता है— है। स्वर विद्या, भूकम्प विद्या, अन्तरिक्ष विद्या 1 विद्या, वण्ड विद्या, वास्तुविद्या, अंग स्फुरण जो स्वप्न विद्या, विद्या और शब्द विद्या आदि इन विद्याओं के द्वारा जो आजीविका नहीं करता है - वह भिक्षु है ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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