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सूत्र ८१२-८१३
संयम में पराक्रम करने वाले को मुक्ति
बौर्याचार
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राग छ वोर्स च तहेब मोहं, उठत्तकामेण समूलजाल । राग-प और भौह का समूल उन्मूलन चाहने वाले मुनि जे जे उशया पडिज्जियम्वा, ते कित्तहस्सामि अहाणुपुरिव ॥ को जिन-जिन उपायों को स्वीकार करना चाहिए उन्हें मैं क्रमश:
-उत्त. अ. ३२, गा. ६-६ कहूंगा। जे इन्दियाणं विसया मना,
समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के जो मनोज्ञ न तेसु मा निसिरे कयाइ। विषय हैं उनमें कभी भी राग न करे लौर अमनोज्ञ विषयों में न या मषुल्लेसु मणं पि कुज्जा,
मन से भी दोष न करे। समाहिकामे समणे तवस्सी।
-उत्त. अ. ३२, गा. २१ संजमे परक्कंतस्स विमुसि
संयम में पराक्रम करने वाले की मुक्ति८१३. एवं ससंकप्प-विकपणा,
८१३. इस प्रकार राग-द्वेषात्मक संकल्प-विकल्पों से निवृत्त होने संमायई समयमुवट्टियस्स । पर मन में समता उत्पन्न होती है तथा इन्द्रिय विषयों के प्रति अत्थे च संकल्पओ तओ से,
संकल्प-विकल्प के न रहने से काम गुणों में होने वाली तृष्णा भी पहोयए कामगुणेषु तण्हा ।। नष्ट हो जाती है। स बीयरागो कयसम्बकियो, खबेद नाणावरणं खणणं । फिर वह भीतराग बना हुआ जीव पूर्ण कृतकृत्य होकर क्षण तहेव जं सगमावरेइ ज चन्तरायं एकरेइ कम्मं ॥ भर में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय : कर्म का क्षय कर
देता है। सब तो जाणइ पासए य.
तत्पश्चात् वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है तथा मोह और ___ अमोहणे होई निरन्तराए। अन्तराय से रहित हो जाता है। अन्त में वह सम्पूर्ण आश्रव अणासवे सागसमाहिजुत्ते,
रहित होकर ध्यान के द्वारा समाधि' में लीन बन कर कर्म मल से आउक्खए मोक्खमुह सुखे ।। शुद्ध होकर आयुष्य का क्षय होते ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। सो तस्स सबस्स बुहस्स मुक्को,
वह मुक्त जीव संसार में प्राणियों को सतत पीडित करने जं बाहर सथयं जन्तुमेय। वाले सम्पूर्ण दुःखों से रहित हो जाता है तथा दीर्घकालीन कमवोहामविप्पमुक्को पसायो,
रोग से वह मुक्त हो जाता है। वह प्रशस्त और कृतार्थ बना तो होह अच्चतही कमरयो ।। हुआ जीव अत्यन्त सुखी हो जाता है। अगाहकालप्पलवस्स एसो,
अनादिकालीन समस्त दुःखों से मुक्त होने का यह मार्ग सब्यस्स युक्खस्स पमोक्खमम्यो। बताया गया है उसे स्वीकार कर जीव क्रमशः पुरषार्य कर शाश्वत विवाहिओ जं समुविच्च सत्ता,
सुखी हो जाते हैं। कमेण अध्चन्तसुही भवन्ति ।
-उत्त. अ. ३२, गा.१०७-१११ णिम्ममो निरहंकारो, बोतरागो अणासषो ।
मुनि ममत्व और अहंकार से रहित बन कर आश्रव रहित संपत्तो केवलं गाणं, सासयं परिगिरे।
हो जाता है, फिर वीतराग बनकर केवलज्ञान को प्राप्त कर
-उत्त. अ. ३५, गा. २१ शाश्वत मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है। तवोगुणपहाणस्स, उज्जुमा खंतिसंजमरयास ।
जो श्रमण तपो-गुण से प्रधान, ऋजुमति, शाति तथा संवम परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुग्गइ तारिसमस ।।
में रत और परीषहों को जीतने वाला होता है उसके लिए सुगति
-दस. अ. ४, मा. २७ सुलन है। अणुत्तरे य आगे से,
काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित कासवेग पवेदिते ।
संयम स्थान सबसे प्रधान है। जिस संयम की आराधना करके नं किम्मर पिम्बुग,एग,
अनेक महापुरुष अपनी कषायाम्नि बुझाकर शीतस बने हैं और वे गि पाति पछिया । पापभीर मुनि संसार के अन्त को प्राप्त करते हैं।