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________________ ४०४) घरणानुयोग-२ सोका ही आत्मश सूत्र ८०६-८१२ लोगविष्णु एव अत्तविपण - लोकज्ञ ही आत्मज्ञ६. लोगं च प्राणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ! ५०६. मुनि अप काय रूप लोक को भगवान की आशा से जानकर उन्हें किसी भी प्रकार का भय उत्पन्न न करे।। से बेमि-णेव सयं लोगं अम्माइमखेज्जा, णेक अत्ताणं अबमर- मैं कहता हूं-'मुनि स्वयं अप कायिक जीवों के अस्तित्व का पूक्तेज्जा। निषेध न करे । न अपनी आत्मा का अपलाप करे।' जे लोग अभाइक्ख ति से अत्ताणं अमाइक्खति, जे अत्ताणं जो अपकाय रूप लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव अज्भाइक्वंति से लोग अन्भाइक्खंति ।। में अपना ही अपलाप करता है। जो अपना अपलाप करता है, - आ. सु. १, अ. १, उ. ३, सु. २२ वह अप्काय रूप लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। आयावाइस्स सम्म परक्कम आत्मवादी का सम्यक् पराक्रम१०.जे आया से विष्णाता, जे विण्णाता से आया । १०. जो आत्मा है वह विशाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा जेण विजाणंति से आया । है, क्योंकि स्व-पर को जानता है इसलिए वह आत्मा है । सं एडुमच पडिसं खाए। उस ज्ञान की विभिन्न परिणतियों की अपेक्षा से आस्मा की पहचान होता है। एस आयावादी समियाए परियाए वियाहिते। इस प्रकार जो आत्म स्वरूप का ज्ञाता है उसी का संयम -आ. सु. १, अ. ५, उ. ५, सु. १७१ पर्याय सम्यक कहा गया है। जाणाइ सहियस्स परक्कम . ज्ञानादि से युक्त मुनि का पराक्रम११. सहित धम्ममादाय सेयं समणुपरसति। ५११. ज्ञानादि से युक्त साधक धर्म को ग्रहण करके आत्म हित का सम्यक् प्रकार से अवलोकन करता है। बुहतो जीवियस परिववण-माषण-पूयणाए जसि एगे राग और द्वेष से कलुषित कई एक प्राणी जीवन निर्वाह के पमायति । लिये वन्दना सम्मान और पूजा के लिए हिंसादि प्रमाद कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं। सहिओ दुक्ख मत्ताए पुटरे णो संझाए । ज्ञानादि से युक्त साधक दुःख के अनेक प्रसंग उपस्थित होने पर व्याकुल नहीं होता। पासिम दविए लोगालोगपवंचातो मुच्चति । ___ अतः हे शिष्य ! तू देख कि-'ऐसा संयमी राधिक इस भव -आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२७ और परभव के समस्त प्रपंचों से मुक्त हो जाता है।' समाही कामी समणस्स परक्कम - समाधि के इच्छुक श्रमण का पराक्रम८१२. जहा य अपडप्पभया बलाया, मण्डं बलागप्पभव बहाय। ८१२, जैसे बगुली अण्डे रो उत्पन्न होती है और अण्डा बगुली से एमेव मोहायतणं खु तह, मोहं च ताहायपणं वन्ति ।। उत्पन्न होता है उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है : ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं। माह तृष्णा रागो य दोसो वि य मम्मबीयं, कम्मच मोहप्पभव वयन्ति। राग और द्वेष ये दोनों ही कर्म के बीज है। कर्म मोह से कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, युक्खं च जाईमरणं वयन्ति । उत्पन्न होता है और कर्म ही जन्म मरण का मूल है। जन्म मरण ही दुःख का मूल है ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं। चुक्खं हमें जस्स न होइ मोहो, जिसके मोह नहीं है उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके ___ मोहो हो जस्स म होइ तण्हा। तृष्णा नहीं है उसने मोह का नाम कर दिया। जिसके लोभ नहीं तम्हा हया जस्स न होइ लोहो, है उसने तृष्णा का नाश कर दिया। जिसके पास कुछ भी परिग्रह लोहो हो बस्स न किंधणाई॥ नहीं है उसने सोभ का नाम कर दिया। १ बा.सु. १,०१, च. ४, सु. ३२ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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