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________________ सूत्र ५५२-५५४ पायोपगमन अनशन तपाचार [२६५ पाओवगमण अणसणे पादोषगमन अनशन५५२. अयं धाततरे सिया, जे एवं अणुपालए। ५५२. यह पादपोपगमन अनशन भक्त प्रत्याख्यान से और इंगितसब्य-गाय-णिरोधे बि, ठाणातो ण वि उम्भमे ॥ मरण से भी विशिष्टतर है। जिसका इस प्रकार पालन किया जाता है, वह सारा शरीर कुचल दिये जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता है। अयं से उत्तमे धम्मे, पुष्वट्ठाणस्स पागहे। यह पादोपगमन अनशन उत्तम धर्म है । यह पूर्व अनशनों से अचिरं परिलहिता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥ प्रकृष्टतर है। भिक्षु जीव जन्तु रहित स्थाण्डिल (स्थान) का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ अप्रेसनयत् स्थिर होकर रहे। अचित्तं तु समासज, सावए तत्प अपगं । अचित्त स्थान को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित योसिरे सम्बसो कार्य, प मे देहे परीसहा ॥ कर दे। शरीर का सब प्रकार से व्युत्सर्ग कर दे। परीषह उपस्थित होने पर ऐसी भावना करे यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब घरीषह जनित दुःख मुझे कसे होंगे?' जावज्जीवं परीसहा, उबस्सम्मा य संखाय । जब तक जीवन है तब तक ये परीषह और उपसर्ग होते हैं, संधुएं कह दाए, इस प्रयासए । यह विचार कर शरीर को विसजित करने वाला तथा शरीरभेद के लिए समुद्यत प्राज्ञ भिक्षु उन्हें समभाव से सहन करे। भेउरेसु पं रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि। भिक्षु क्षणभंगुर विविध प्रकार के काम-मोगों में आशक्त न इच्छालोमं ण सेवेम्जा, धुवणं सपेहिया ।। होवे तथा संयम के स्वरूप का सम्यक् विचार करके इच्छा रूप लोभ का भी सेवन न करे। सासएहिं णिमंतेज्जा, विश्वमायं ण सद्दहे । कोई दिव्यभोगों के लिए निमन्वित करे तब भिक्षु उस देव तं परिदुरल माहणे, सवं नूमं विधूणिया । माया पर श्रद्धा न करे, उस माया को सर्व प्रकार से कर्म बन्ध' का कारण जानकर उससे दूर रहे। सम्बठेहिं अमुच्छिए, आयुकालस्स पारए । सभी प्रकार के विषयों में अनासक्त और मृत्युकाल के पार तितिक्वं परमं णच्चा, बिमोहण्णतरं हित ।। तक पहुंचाने वाला मुनि तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ जानकर हितकर -आ. सु. १, अ.८. उ. ८, गा. ३४-४० अनशनों में से किसी एक का आराधन करे । अणसण गहणस्स दिसाओ अनशन ग्रहण करने की दिशाएँ५५३, हो दिसाओ अभिगिन कप्पति णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा ५५३. जो निन्य और निर्गन्धियाँ अपश्चिम मारणान्तिवा अपच्छिममारणंतियसंहणा झूसणा झूसियाणं, भत्तपागरि- संलेखना की आराधना से युक्त हैं, जो भक्त-पान का प्रत्याख्यान याइक्खित्ताणं पाओगताणं काल अणवखमाणाणं बिह- कर चुके हैं जो पादोपगमन अनशन से युक्त है, जो मरणकाल रितए, त जहा... की आकांक्षा नहीं करते हुए विचर रहे हैं, उन्हें दो दिशाबों की १. पाईणं चंव, २. उबीणं शेव । ओर मुंह कर रहना चाहिये । यथा---(१) पूर्व और (२) उत्तर। -ठाणं. अ. २, ३.१, सु. ६६(ख) अणसण फलं.. अनशन का फल५५४. निजहिऊण आहार, कालधम्मे उदिए । ५५४. समर्थ मुनि कालधर्म के उपस्थित होने पर आहार का जहिऊण माणुसं बौदि, पहू दुषले विमुच्चई ॥ परित्याग करके मनुष्य शरीर को छोटकर दुःखों से विमुक्त हो उत्त, अ. ३५, गर. २० जाता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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