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सवाधरण : एक मौद्धिक विमर्श | २७
रोगी का कल्याण और शामटर का कल्याण एक नहीं है, श्रमिक इस प्रकार हम देखते हैं कि नैतिक प्रतिमान के प्रथम पर न का कल्याण उसके स्वामी के कल्याण से पृयक ही है, किसी केवल विविध दृष्टिकोणों से विचार हुआ है, अपितु उसका प्ररप्रेक आमाम मुथ (Universal good) की बात कितनी ही आक- सिद्धांत स्वयं भी इसने अन्तविरोधों से युक्त है कि वह एक सार्वकक्यों हो, वह प्रांति ही है। देवक्तिक हिनों के योग के भौम मैतिक पारदण्ड होने का दावा करने में असमर्थ है। आज अतिरिक्त सामान्य हित (Caninion gaod) मात्र अमूर्त कल्पना भी इस सम्बन्ध में किपी सर्वमान्य सिद्धांत का अभाव है।
न केवल व्यक्तियों के हित या शुभ अलग-अलग होगे अपितु वस्तुतः नैतिक मानदण्डों को यह विविधता स्वाभाविक ही हो मित्र परिस्थितियों में एक व्यक्ति के हित भी पृथक-पृथक् है और जो लोग किसी एक सर्वमान्य नैतिक प्रतिमान की बात
। एक ही व्यक्ति दो भिन्न-भिन्न स्थितियों में दाता और करते हैं वे कल्लनालोक में ही विचरण करते हैं। नैतिक प्रतिमानों याचक बोनों हो सकता है. किन्तु क्या दोनों स्थितियों में उसका को एस विविधता के कई कारण है। सर्वप्रथम तो नैतिकता और हित समान होगा? समाज में एक का हित दूसरे के हित का अनैतिकता का यह प्रयन उस मनुष्य के मन्दर्भ में है जिसकी प्रकृति बाधक हो सकता है। मात्र यही नहीं, हमारा एक हित हमारे ही बहुआयामी (Multi dimensional) और अन्तविरोधों से परिपूसरे हित में बाधक हो सकता है । रसनेन्द्रिय या यौन वामना पूर्ण है । मनुष्य केवल चेतनसत्ता नहीं है, अपितु चलनायुक्त शरीर सन्तुष्टि के हित और स्वास्य-माधी दिा (Gand) गाणी है, यह केवल व्यक्ति नहीं है, अपितु ममाज में जीने वाला व्यक्ति हों, यह बावश्यक नहीं है। वस्तुतः यह धारणा कि मनुष्य का या है। उसके अस्तिस्त्र में वासना और विवेक तथा वैयक्तिकता और मनुष्यों का कोई सामान्य शुभ है अपने बाप अथार्थ है, जिसे सामाजिकता के तत्व समाहित हैं। वहां हमें यह भी समझ लेना हम सामान्य शुभ कहना चाहते है वह विभिन्न गुभों का एक ऐसा है कि वासना और विवेक में तथा व्यक्ति और समाज में स्त्र
ना है, जिसमें न केवल भिन्न-भिन्न शुभों को पृथक-पृथक भावतः संगति (Harmony) नहीं है। वे स्वभावत: एक-दूसरे सत्ता है, अपितु वे एक दूसरे के विरोध में भी खड़े हुए हैं। शुभ के विरोध में है। मनोवैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि "हा" एक नही, अनेक हैं और उनमें पारस्परिक बिरोध भी है। क्या (वासना-तत्व) और "सुपर-ईगो" (आदर्श वात्मनाम और आत्मत्याग के बीच कोई विरोध नहीं है ? यदि चेतना के समक्ष प्रतिपक्षी के रूप में ही उपस्थित होते हैं। उसमें पूर्णतावादी निम्न आत्मा (Lower Self) के त्याग द्वारा उच्चा- समर्पण और शासन की दो विरोधी मूल प्रवृत्तिया एक साथ स्मा (Higher Self) के लाभ की बात कहते हैं तो वे जीवन काम करती हैं। एक ओर वह अपनी अस्मिता को बचाये रखना के इन दो पक्षों में विरोध स्वीकार करते हैं । पुनः निम्नास्मा भी चाहता है तो दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को व्यापक बनाना इमारीमात्मा है और यदि हम उसके निषेध की बात स्वीकार चाहता है. समाज के साथ जुड़ना चाहता है। ऐसे बहुमायामी करते हैं तो हमें पूर्णतावाद के सिद्धांत को छोड़कर प्रकारान्तर एवं अन्तनिरोधों से युक्त ससा के शुभ या हित एक नहीं. अनेक
द मा वैराग्यबाद वो ही स्वीकार करना होगा। इमी होंगे और जब मनुष्य के शुभ या हित (good) हो विविध है तो प्रकार वैयक्तिक आत्मा और सामाजिक शात्मा का अयचा स्वार्थ फिर नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे। किती परम शुभ और परार्थ का अन्तविरोध, भी समाप्त नहीं किया जा सकता (Ultimate gaad) की कल्पना परम सत्ता (Ultimate reality) है। इसीलिए मूल्यवाद किसी एक मूल्य की बात न कहकर के प्रसंग में चाहे सही भी हो, किन्तु मानवीय अस्तित्व के प्रसंग "मूल्यों" या "मूल्य-विश्व" की बात करता है। मूल्यों की में सही नहीं है। मनुष्य को मनुष्य मानकर चलना होगाविपुलता के इस सिद्धांत में नैतिक प्रतिमान की विविधता स्व. ईश्वर मानकर नहीं, और एक मनुष्य के रूप में उसके हित या भावतया ही होगी, क्योंकि प्रत्येक मूल्य का मूल्यांकन किसी माध्य विविध ही होंगे। साथ ही हिनों या साध्यों की यह इण्टि विशेष के आधार पर ही होगा। चूंकि मनुष्यों की जीवन विविधता मंतिक प्रतिमानों की अनेकना को ही सुचित करेगी। पुष्टियाँ या मूल्प दृष्टियाँ विविध है, अतः उन पर आधारित नतिक प्रतिमान का आधार व्यक्ति की जीवन-दृष्टि या नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे। पुनः, मूल्यवाद में मस्यों मूल्य-दृष्टि होगी, किन्तु व्यक्ति की मूम्प्रदूष्टि या जीवन-दृष्टि के तारतम्य को लेकर सदैव ही विवाद रहा है। एक दृष्टि से व्यक्तियों के बौद्धि पिकाम, संस्कार एवं पर्यावरण के आधार जो सर्वोच्च मुल्य लगता है, वही दूसरी दृष्टि से निम्न मूल्य हो पर हो निनित होती है। पक्तियों के बौद्धिक विकास, पर्यावरण सकता है। मनुष्य की जीवनदृष्टि या मूल्पदृष्टि का निर्माण भी और संस्कारों में भिन्नता स्वाभाविक हैं, अतः उनकी मूल्यस्वयं उसके संस्कारों एवं परिवेशजन्य तथ्यों से प्रभावित होता दुष्टिका अनग-अलग होमी और यदि मूल्य-दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न है, अत: मूल्यवाद नैतिक प्रतिमान के सन्दर्भ में विविधता की होगी तो नैतिक प्रतिमान भी विविध होंगे। यह एक आनुभविक धारणा को ही पुष्ट करता है।
तथ्य है कि विविध दृष्टिकोणों के आधार पर एकही पटना का
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