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________________ सूत्र ६६४-६६७ प्रायश्चित्त का फल तपाचार १३३३ सपायच्छिस मिक्खं गिलायमाणं नो कप्पा तस्स गणावच्छे- प्रायश्चित्त प्राप्त ग्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना इयस्स निहित्तए । अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावलियं, उसके मणायत्छेदन को नहीं कल्पता है। जब तक वह उम रोग -जाव-तको शेयायको विपमुको सओ पच्छा अहालह- आतक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लान भाव से सेवा करानी सए नाम बघहारे पवियचे सिया। नाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायश्चित में प्रस्थापित करे। भत्तपाणपडियाइक्खिय भिव गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स भक्त प्रत्यास्यानी म्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना गगावच्छे यस्स निम्नहित्तए। अगिलाए तस्स करणिज्जं उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है । जव तक यह उस रोग धेयावडिय-जाव तओ रोगायंकाओ विष्पमुक्को तओ पच्छा आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लान भाव में सेवा करानी तस्म अहालसए नाम ववहारे पट्टषियब्वे सिया । चाहिए। उसके बाद उने (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायधिचत्त में प्रस्थापित करे। अठ्ठ-जाय भिक्षु गिलायमाणं नो कप्पड तस्स गणावच्छ प्रयोजनाविष्ट (आकांक्षा युक्त) ग्लान भिक्षु को गण से इयस्स निहित्तए । अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावरिया, बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है । जब तक -जाव-तो रोयायंकाओ विप्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहा- वह उस रोग आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अालान भाव लहुसए नाम बबहारे पवियम् सिया । से सेवा करानी चाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प -वव. उ. २, सु. ६-१७ प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। पायच्छित फलं प्रायश्चित्त का फल - ६६५. ५०-पायच्छित्त-करणेणं भन्ते ! जीये कि जणया? ६६५. प्र.-भन्ते ! प्रायश्चित्त करने से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.--पायच्छित्तकरणेणं पावकम्म विसोहि जणयह, निरह- उ-प्रायश्चित्त करने से वह पापकर्म की विशुद्धि करता यारे पावि भवई । सम्मं च णं पायच्छिसं पडिबग्ज- है और निरतिचार हो जाता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त माणे मग च मम्गफलं व विसोहक, आयारं च आयार स्वीकार करने वाला वीतराग माग (सम्पपरव) और मार्ग-फल फल च आराहेह। --उत्त अ. २६, सु. १८ (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार (चरित्र) और आधार फल (मुक्ति) की आराधना करता है। अत्त-णिदा-फलं आत्मनिंदा का फल६६६.५०-निन्दणयाए णं भन्ते ! जीथे कि जणयह ? ६६६. प्र.- भन्ते ! आत्म-निन्दा! से जीव वया प्राप्त करता है? उ. - निन्दणयाए णं पच्छाणुसावं जणयह । पछाणुतायेणं उ.-आत्म-निन्दा से वह पश्चात्ताप को प्राप्त होता है। विरज्जमाणे करणगुणसेढि पडिबज्जई | करणगुणसेतो पश्चात्ताप से वैराग्य को प्राप्त होता हुआ वह जीव क्षपक श्रेणी परिवन्ने अणमारे मोहणिज्ज कम्म उग्धाएइ। को प्राप्त होता है । क्षपक श्रेणी को प्राप्त हुआ अनगार मोह -उत्त. अ. २६, सु.८ नीय कर्म को क्षीण कर देता है। विविहा गरहा -- अनेक प्रकार की महीं६६७. तिविहा गरहा पण्णता, तं जहा -- ६६७. गर्दा तीन प्रकार की कही गई है, यथा पाप कर्मों को नहीं करने के लिए१. मणसा वेगे गरहति, (१) कोई मन से नहीं करते हैं, २. वयसा बेगे गरहति, (२) कोई बचन से गर्दा करते हैं, ३. कायसा वेगे परहति -पावाणं कम्माणं अकरणयाए । (३) कोई काया से गर्दा करते हैं। अहवा-गरहा तिथिहा पण्णता तं जहा--- अथवा गहीं तीन प्रकार की कही गई है पाप कर्मों को नहीं करने के लिए-- १. बीह पेगे अवं गरहति, (१) कोई दीर्घकाल तक पाप-कर्मों की मर्हा करते हैं,
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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