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________________ ३३४] चरणानुयोग-२ आत्म गहाँ का फल सूत्र ६६७-६६६ २. रहस्सपेगे अदं गरहस्ति, (२) कोई अल्प काल तक पाप-कर्मों की गहा करते हैं, ३. कायंपेगे पडिसाहररि-पावाणं फम्माणं अफरणाए। (३) कोई काया को पापकर्म से निवृत्त कर लेते हैं। -ठाणं. अ. ३, उ.१, सु. १६५ चबिहा गरहा पण्णसा, संहा हा गा की कही गई है । जैसे१. उपसंपज्जानिसेगा गरहा, (१) अपने दोष को निवेदन करने के लिए गुरु के समाप जाऊँ इस प्रकार का विचार करना, यह एवा नहीं है । २. वितिगिच्छामिलेगा गरहा, (२) अपने निन्दनीय दोषों का निराकरण करूं इस प्रकार का विचार करना, यह दूसरी गहीं है। ३. ज किचिमिच्छामित्तेगा गरहा, (३) जो कुछ मैंने असद् भाचरण किया है, वह मेरा मिथ्या हो, इस प्रकार के विचार से प्रेरित हो ऐसा कहना यह तीसरी मां है। ४. एवं पि पण्णत्तेगा गरहा । (४) ऐसा भी भगवान् ने कहा है कि अपने दोष की गर्दा करने से दोषों की शुद्धि होती है, ऐसा विचार करना यह चौथी -साणं, अ. ४, उ. २, सु. २२५ गहीं है । अत्त गरहणा फलं आत्म गर्दा का फल - ६६८. १०---गरहणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ? ६६८. प्र.-भन्ते ! आत्म-गहीं से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ.-गरहणयाए गं अपुरस्कारं जगया। अपुरस्कारगए उ०-आत्म नहीं से वह जीव अवज्ञा को प्राप्त होता है। पं जीवे अप्पसत्येहिती, जोगेहितो नियतेड पसत्ये य अवज्ञा को प्राप्त हुआ जीव अप्रशस्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होता पवत्तइ । पसत्यजोगपडियन्ने यणं अणगारे अगन्त है और प्रशस्त प्रवृत्तियों को अंगीकार करता है। प्रशस्त योगों घाइपग्जवे सवेद । -उत्त. अ.२६ सु. ६ से युक्त हुआ बनगार आत्मा के अनन्त ज्ञान दर्शनादि की घात करने वाली कम पर्वायों को क्षीण कर देता है। पारिहारिक तप-१() पारिहारिय-अपारिहारियाणं णिसेज्जाइ ववहारो- पारिहारिक और अपारिहारिकों का निषद्यादि व्यवहार - ६६६. बहवे पारिहारिया बहवे अपारिहारिया इच्छेन्जा एपघओ ६६६. अनेक पारिहारिक भिक्षु और अनेक अपारिहारिक भिक्षु अभिनिसेज्जं था, अभिनिसोहियं या चेइत्तए, नो से कप्पर यदि एक साथ रहना या बैठना चाहे तो स्थविर भिक्षु को पूछे थेरे गणापुच्छिता एमयओ अभिनिसेज्ज वा अमिनिसीहियं बिना एक साथ रहना या एक साथ बैटना नहीं कल्पता है। वा घेइत्तए। पप्पाहणं येरे आपूपिछत्ता एगयो अमिनिसेजमा अमि- स्पविर भिक्षु को पूछ करके ही वे एक साथ रह सकते हैं निसीहियं वा चेहत्तए। या बैठ सकते हैं। घेरा य गं वियरेज्जा, एवं कपड़ एगयओ अमिनिसेज या यदि स्थविर भिक्षु आज्ञा दें तो उन्हें एक साथ रहना या अभिनिसीहियं वा चेइत्तए । एक साथ बैठना कल्पता है। पेरायणं वियरेज्जा, एवं गणो कप्पड एगयओ अभिनिसेज स्थविर भिक्षु आज्ञा न दें तो उन्हें एक साथ रहना या वा अभिनिसोहियं वा चेदत्तए। बैठना नहीं कल्पता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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