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________________ १३४ ] चरणानुयोग - २ ३. ओमरातिथिया समयी जग्गंधी महारया महाकिरिया अणायाधी असमिता धम्मस्स अणाराहिया भवति । ४. ओमरातिणिया समणी गिग्गंयो अध्यकम्मा अप्यकिरिया आताषी समिता धम्मस्स बाराहिया भवति । पण्यताओ-शव-वारा एवं चैव पतार गणोबारिया हिया भवइ । - ठा. अ. ४, उ. ३. सु. ३२१ आहाकम्म आईणं विवरोध परूवणा२०८. "आहाकम् असि मणं पहारेला भवति से गं तस्स ठाणस्स अणालीद्वय अपविते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा । रामपि । आधाकर्म आदि की विपरीत प्ररूपणा से णं तस्स वाणस्स आलोयपठिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स आरोहणा । एगमेवं वियर कंसारभ मन्तं दिवागतं सियारपि "आहाकम् अवर" भासिता यमेव परिमिता नयति-जावत्यराणा । एवेन्यंपरापितं । "आहाकम्मं णं अगर भवति - जाव अत्थि तस्स आराहणा । एगी। अमल अणुवनावेत "आहाकामं णं भवति भवति- जाव अस्थि तस्त आराहणा । तदा एतेन गमेणं नेयय्वं कीयकडं जाब- रापिडं । - वि. स. ५.६. सु. १५-१८ सूत्र २०७-३०८ RAD (३) कोई अवमरालिक श्रमणी निर्मन्थी महाकर्मा, महाक्रिया अतपस्विनी और असमित होने के कारण धर्म की विरा होती है। (४) कोई अनमालिक भ्रमण निधी कर्मा अल्पशिया तपस्विनी और समित होने के कारण धर्म की वाराधिका होती है। इससे प्रकार चार प्रकार की धमयोपासिकाएं कही गई हैं। - पावत्-आशधिका होती हैं। आधाकर्म आदि की विपरीत प्ररूपणा- ३०८. "आधाकर्म आहार आदि निर्दोष है" इस प्रकार की जी साधु मन में धारणा बना लेता है यदि वह उस आधाकर्म विषयक अपनी धारणा की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नही होती है | यदि वह उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसके आराधना होती है। 銀 : कर्म के आलापक के अनुसार होत स्थापित रचितक, शान्तारमभि भक्त निकाभक्त ग्लान भक्त तर राम इन सब दोषों से युक्त आहारावि के विषय में जानना चाहिये । " "आधरकर्म आहार आदि निर्दोष है" इस प्रकार से जो साधु बहुत से मनुष्यों के बीच में कह कर स्वयं ही इस कर्म आहारादि का सेवन करता है तो यावत् - उसके आराधना होती है। इसी प्रकार से हो कोत दोष यावत् राजपिंड के आलाएक समझ लेने चाहिए। "आाधाकर्म आहार आदि निर्दोष होता है" इस प्रकार कह कर जो एक दूसरे को देता है तो यावत् उसके आराधना होती है । इसी प्रकार से हो कोत दोष यावत्- राजपत्र के आलापक जान लेने चाहिए । "आधाकर्म आहार नि होता है" इस प्रकार जो साधु बहुत से लोगों के बीच में प्रकरण करता है आराधना होती है । उसके इसी प्रकार से ही कोस दोष यावत्- राजपत्र के आला पक समझ लेने चाहिए ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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