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________________ २४० घरणानुयोग-२ भोगिक व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने का विधि-निषेध सूत्र ४६१ नो से कप्पड़ गणाबच्छेइयतं अनिक्खिविता अन्नं गणं उसे गणावच्छेदक का पद छोड़े बिना अन्य गण को सांभोसंभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता गं विहरित्तए। गिक यमबहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है। कप्पह से गणावच्छेदयत्तं निविषवित्ता अन्नं गणं संभोग- किन्तु गणाव दक का पद छोड़कर अन्य गण को साभोपडियाए उसंपज्जिता र्ष विहरित्तए । गिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। नो से कप्पर अणापुच्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छे इयं आचार्य-यावत्-गणावाछेदक को पूछे बिना अन्य गण वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जिता गं विहरित्तए। को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नही कल्पता है। कप्पह से आपुच्छित्ता आपरियं वा-जाब-गणावच्छेदयं था किन्तु आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक को पूछकर अन्य अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं बिहरित्तए। गण की सामागिक व्यवहार के लिए करना कल्पता है। ते य से वियरेज्ला, एवं से कप्पर अन्नं गणं संभोगपडियाए वे यदि आज्ञा दें तो अन्य गण को सामोगिक व्यवहार के उपसंपज्जित्ता णं विहरिसए। के लिए स्वीकार करना कल्पता है। ते प से नो वियरेक्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोग- वे यदि आज्ञा न दें ली अन्य गण को सांभोगिक व्यवहार पडियाए उपसंपज्जित्ता गं विरितए । के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है। जत्यत्तरिय धम्मविणयं लभेजा, एवं से कप्पइ अझ गणं यदि गंयम धर्म की उन्नति होती हो तो अन्य गण को संभोगपडियाए उघसंपज्जित्ता गं बिहरितए । गांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। जत्युत्तरिय धम्मविणयं नो लभेम्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं किन्तु यदि संयम धर्म की उन्नति न होती हो तो अन्य गण गणं संभोगपडियाए उपसंपन्जिता विहरित्तए । को मांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है। आयरिय-उवमाए य गणामो अवपकम्म इच्छज्जा अन्न आचार्य या उपाध्याय यदि स्वगण से निकलकर अन्य जा गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता गं विहरिसए। को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना चाहे तोनो से कम्पद आयरिय-उवज्ञायत्तं अनिक्लिवित्ता अन्नगणं उन्हें अपने पद का त्याग दिए बिना अन्य गण को सांभो.. संमोगपक्षियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए। ध्यवहार के लिए स्वीक र करना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से आयरिय-उवज्झायत्तं निक्सियित्ताणं अन्न गणं किन्तु अपने पद का त्याग करके अन्य गण को मांभोगिक संभोगपडियाए उदसंपत्तिाणं विहरित्तए । व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। नो से कप्पद अथापुस्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेइयं आचार्य-यावत्:-गणावच्छेदक को पूछे बिना उन्हें अन्य षा अन्नं गर्ण संभोगपरियाए उवस पज्जित्ता णं विहरित्तए। गण को सांभोगिक व्यवहार के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। कम्पद से आपुच्छिता आयरियं घा-जाब-गणावच्छेइयं वा किन्तु आचार्य-यावत् -- गायच्दक को पूछकर अन्य अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपजित्ता णं विहरितए। गण बने सांभोगिक व्यवहार के लिये स्वीकार करना कल्यता है । हे म से वियरेज्जा, एवं से कप्पड अन्नं गणं संभोगपडियाए थे पदि आज्ञा दें तो अन्य मण को सांभोगिक व्यवहार के उपसंपज्जित्ता गं विहरित्तए। लिये स्वीकार करना कल्पता है । ते य से नो वियरेन्जा, एवं से नो कप्पह अन्नगणं संभोग- वे यदि आज्ञा न दें तो अन्य गण को साभोगिक व्यवहार के पडियाए उथसंपज्जित्ता णं विहरिसए। लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। जत्युत्तरियं धम्मविणयं सभेज्जा, एवं से कप्पइ अन्न गणं यदि उत्कृष्ट श्रुत एवं चारित्र धर्म की प्राप्ति होती हो तो संभोगपडियाए उबसंपज्जिता गं विहरिसए । अन्य गण को सांभोगिक व्यवहार के लिये स्वीकार करना कल्पता है। जत्वत्तरिय धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पड़, किन्तु यदि संयम धर्म की उन्नति न होती हो तो अन्य गण अब गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरितएको सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । -कप्प. उ. ४, सु. २३-२५
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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