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________________ सूत्र ४६८-४६६ सांभोगिक व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने का विधि-निषेध ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पड़ अन्नं गणं जनसंप ज्जिता णं विहतिए' । - कष्प उ. ४, सु. २०-२२ fera य गणाओ अareम्म अन्नं गणं जसं पज्जित्ताणं बिह रेज्जा, तं केद्र साहम्मिए पासिता वज्जा - प० " बक्जो ] उपसंपज्जिता विहरनि ? उ०- जे सत्य सवराइणिए तं वज्जा । १०- "अह पन्ते ! कस्स करवाए ?" उ०- जे सरथ सम्व बहुस्सुए सं वएज्जा, जं वा से भगवं सरस आणा उबवाय वयण से वरसड़ चिट्ठिस्लामि - उ. ४, सु. १० कलावरिया-जाय गणदयं वा जाव-गणाच्छे वा अन्नं गणं संभोगवडियाए उमंग बिहरिए । प ते से दिया एवं से कम्पद अम्मं गणं संभोगवडियाए उपजिला बिहरिए। संघयवस्था [२३६ सेय से नो वियज्जा एवं से नरे कप्पह अनं गणं संभोगबडिमाए उपसंपति बिहरिए । जत्तरियं धम्मविषयं सा एवं से संभोग लिए । जसरि धम्मविजयं नो एवं से नो अ गणं संभोगडियाए उनसंपज्जिता णं विहरित्तए । गणावच्छेइए य गणाओ अश्वपम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगडिया उपवर यदि वे आज्ञा न दें तो उन्हें अन्य गण को स्वीकार करना नहीं कल्पता है । विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए यदि कोई भिक्षु अपना छोड़कर अन्य गण को स्वीकार कर विचर रहा हो उम्र समयउसे उस गण में देखकर कोई स्वधर्मी भिक्षु पूछे किप्र० -- 'हे आर्य ! तुम किस को निश्रा में विचर रहे हो ?" उ०- तब वह उस गण में जो दीक्षा में सबसे बड़ा हो उसका नाम कहे । प्र० - पुनः पूछ कि हे भदन्त ! किस में हो ?" बहुभूत की 5. मुक्ता संभोग वडियाए अण्ण-गण-गमण विहि-जिसेहो ४६६. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोग- ४६६. भिक्षु यदि स्वगण से निकलकर अन्य गण को सांयोगिक करना चाहे तो एउवसंज्जित्ता णं विहार- — नो मे कप्पर अापुच्छिता आयरि वा जाव-गणावह या अन्नं गणं संभोगडिया उपसंपविताणं बिहलिए । उसे आचार्य - यावत् - गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य गण को सांयोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । उ०- तब उस गण में जो सबसे अधिक बहुश्रुत हो उसका नाम कहे तथा वे जिनकी आज्ञा में रहने के लिए कहें उनकी ही आजा एवं उनके समीप में रहकर उनके ही वचनों के निर्देशानुसार में रहेगा "ऐसा कहे सोभोगिक व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने का विधिनिषेध किन्तु आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्य गण को भोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना वरूपता है । यदि वे आशा दें तो अन्य गण को सांयोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य गण को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । यदि संयम धर्म की उन्नति होती हो तो अन्य गण को भोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। किन्तु यदि संयम धर्म की उन्नति न होती हो तो अन्य गण कोसोभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । गणावच्छेदक यदि स्थगण से निकलकर अन्यगण को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना चाहे तो ― १ एक गण में अनेक आचार्य हों तो गण छोड़ने में वह अन्य बड़े आचार्य को पूछता है या अन्य प्रमुख गणावच्छेदक आदि कोई पदवीधर हों तो उन्हें पूछता है। near a कोई पदवीधर गण में न हो तो अन्य को आचार्य बनाकर फिर उसे पूछकर उसकी आशा लेकर अन्य गण में जा सकता है ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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