________________
सूत्र ७६ १.७६३
अनित्य भावना
वीर्याचार
[३६५
सममिमाणेजा । लाघवियं आगममाणे तवे से अमिसमण्णा- आत्मा को एकाकी भाव में ही रखे इस प्रकार वह लापवता को गते भवति ।
प्राप्त करता हुआ तप के लाभ को प्राप्त करता है। जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सम्वती सम्वताए भगवान ने जिस रूप में प्रतिपादन किया है. उसे उसी रूप सम्मत्तमेव सममिजाणिया!
में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक प्रकार से क्रियान्वित -आ. सु. १, म. ज.६.सु.२२२ करे। समाए पेहाए परिश्वयन्तो. सिया मणो निस्सरई बहिडा । सम्यक्तया सावधानीपूर्वक संयम पालन करते हुए यदि न सा महं नोवि अहं पि तीसे, इच्छंव तामओ विणएज्ज रागं॥ कदाचित् मन संयम से बाहर निकल जाए तो साधु यह विचार
-दस. अ.२, मा. ४ करके राग भाव को दूर करे कि "वह मेरा नहीं है और न मैं
ही उसका हूँ।" अहेगे धम्ममादाय आदाणप्पमिति सुप्पणिहिए घरे अप्पलीय- कई साधक मुनि धर्म को ग्रहण करके धर्माचरण में इन्द्रिय बहे।
और मन को समाहित करके चंचलतारहित हो स्थिरतापूर्वक
विचरण करते हैं। सव्वं गेहि परिणाय एस पणए महामुणी ।
धे महामुनि समग्र आसक्ति को छोड़कर संयम में पुरुषार्थ
करते हैं। मतियच्च सम्बओ संग, "ण महं अस्थि ति एगो अहमंसि" फिर सर्वथा संघ का त्याग करके "मेरा कोई नहीं है इसनयमाणे।
लिए मैं अकेला हूँ" ऐसा चिन्तन कर संयम में यरन करते है। एत्य विरते अणगारे सम्वतो भूरे रीयंते जे अचेले परिसिते वह संग्रम में स्थित विरत अनगार सब प्रकार से मुण्डित संचिक्षति भोमायरियाए।
होकर विचरण करता हुआ अवमोदरिका के हेतु अल्प वस्त्र या
निस्सा रहता है। से अकुचा , हतेवा, तूसिते वा, पलियं पर्ग, अनुवा उसे कोई आक्रोश वचन कहे. मारे, पीटे, केश आदि स्त्रींचे, पर्गणं, असहेहि सहफासेहि।
पहले किए हुए किसी धुणित दुष्कर्म की याद दिलाकर अथवा
तथ्यहीन शब्दों द्वारा दोषारोपण करे । हति संखाए एगतरे अण्णतरे अभिणाय तितिक्खमाणे ऐसी स्थिति में मुनि उन अनेक उपसर्गों को अपने कर्मोदय परिवए।
का फल जानकर सम्यक् चिन्तन द्वारा समभाव से सहन करता
हुआ संयम में विचरण करे। यहिरी व अहिरोमणा या सवं विसोसियं सफासे वे उपसर्ग सज्जाकारी हों या अलज्जाकारी हों सम्यग्दी फासे समितवंसगे।
मुनि सभी बाधामों को दूर करता हुआ उन कष्टों को मम्यक
प्रकार से सहन करे। एते भो ! णगिणा बुत्ता जे लोगसि अपारमण धम्मिणो। हे मानवो ! धर्म क्षेत्र में उन्हें ही भावनम्न निम्रन्थ कहा
-मा. सु.१,म.६, उ. २, सु. १०४-१५ गया है जो मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नही आते। अणिच्चा भावणा
अनित्य-भावना७९२. आहारोपया वेहा परोसह पर्मगुरा। पासह एगे सबिबिएहि ७६२. यह शरीर आहार से परिपुष्ट होता है और भूख प्यास परिगिलायमाणेहि । ओए वयं पति ।
आदि परीषहों के आने से यह क्षीण हो जाता है। ऐसी स्थिति -आ. सु. १, अ. ८, ३. ३, सु. २१०(क) में कायर साधक सभी इन्द्रियों से दुःख का अनुभव करते हुए
देखे जाते है, किन्तु राग द्वेष रहित समभावी मुनि इस अवस्था
में भी संयम का पूर्णरूपेण पालन करते हैं। अंसरण भावणा
अशरण भावना७९३. वित्तं पसयो य नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नई। ७६३. अज्ञानी जीव बन, पशु और ज्ञातिजनों को अपना शरणएसे मम भुषी अहं, नो ताणं सरणं न विजई ।। भूत समझता है । ये मेरे हैं मैं इनका स्वामी हूँ, किन्तु वास्तव में
ये उसके लिए न त्राणरूप है और न थरणरूप है।
--
-
-
-