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________________ सूत्र २६३ (११) समणए पापि समणासी । पढमा उवासँग पडिमा - सब धम्म-वई यावि भवति । से सं पढमा उवासंग-पडिमा । अहावरा दोच्चा उपास पडिमा सभ्य धम्म रुई यावि भवइ । लक्ष्य में बहू सीलवर बनासा सम्बं पबिता ति ग्यारह उपासक प्रतिमाएं तस्स णं महूई सोलवय-गुणवय- वेरमण- पञ्चखाण-पोसहीarrer नो सम्मं पट्टविता" भवंति । - सम. ११, सु. १ से तं तच्चा उसग पडिमा | अहावरा चउत्था उवासग पडिमा पोहो से गं सामाइ सागास नो सम्मं अनुपालिता । से तं वोच्या उषासग पडिमा । अहावरा तच्चा उवासँग पडिमा सब धम्म रुई यावि भवइ । तब सीवगुणय- वेरमणं पचवाण पोहो वासाई सम्म पट्टनियाई भवति । से सामाहदेवासवं सम् अनुपातित्ता भव । सेणं उस अमर-पुष्णमाशिषी पडणं सो ववासं नो सम्मं अनुपालित्ता भवद्द । सव्वधम्म-ई यावि मवइ । ree णं बहूई सोलवय-गुणवय- वेरमणं-पच्चक्खाणं-पोसहोवसासम्म विवाहं भवति । गृहस्थ धर्म [११७ (११) प्रतिमा । हे व्यायुष्मन् श्रमणो ! उपासक ग्यारह प्रतिमाओं से संप होता है । प्रथम उपासक प्रतिमा वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्म रुचिवाला होता है, अर्थात् धर्म और चार धर्म में बता रखता है। किन्तु वह अनेक व्रत, मुगवत प्राणातिपातविरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि का सम्यक् प्रकार से धारक नहीं होता। यह प्रथम उपासक प्रतिमा है। अब दूसरी उपासक प्रतिमा का वर्णन करते हैं-वह प्रतिमाधारी आप सर्वधर्माला होता है- उसके बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, प्राणातिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् प्रकार से धारण किये हुए होते हैं । किन्तु वह सामायिक और देशावका शिकवत का सम्यक् प्रतिपालक नहीं होता है। यह दूसरी उपासक प्रतिमा है । अब तीसरी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंयह प्रतिभाधारी भासा होता है उसके बहुत से शीलव्रत, गुणवत, प्राणातिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् प्रकार से धारण किये हुए होते हैं। वह सामायिक और देशावकाशिक शिक्षायत का भी सम्यक परिपालक होता है । किन्तु चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णमासी इन तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपचास का at परिपाक नहीं होता यह तीसरी उपासक प्रतिभा है । अब चौथी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैं - यह प्रतिमाधारी भाव सर्वधर्मविला होता है, उसके बहुत से गलत, सुनवल, प्रातिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् धारण किये हुए होते है । १ प्रतिमा धारण करने के पूर्व श्रावक साधारणतया अनेक व्रत पञ्चकखाण करने वाला व बारहव्रत धारी श्रावक भी होता है, राधाय विभिष्ट प्रतिमा रूप में धारण किया हुआ नहीं होता है इस अपेक्षा से यहाँ पूर्व प्रतिमाओं में अगली प्रतिमा के विषय भूत व्रत नियम का निषेध किया है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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