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________________ सदाधरण : एक बौद्धिक विमर्श | १७ जा नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं प्रारम्भ से ही कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग की धाराएं अलग-अलग होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है। व्याख्या रूप में प्रवाहित होती रही हैं। भागवत सम्प्रदाय के उदय के प्रशप्लि में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने साथ भक्तिमार्ग एक नई निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है। महाबीर ने प्रकार वेदों का कर्ममार्ग, उपनिषदों का शान-मार्गे और भागवत साधक की दृष्टि से ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथ-साथ ही योग सम्प्रदाय एक चतुभंगी का कथन इसी सन्दर्भ में किया है का ध्यान-मार्ग सभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में मोक मार्ग (१) कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न हैं, लेकिन चारित्र-सम्पन्न समझे जाते रहे हैं। सम्भवतः गीता एक ऐसी रचना अवश्य है नहीं हैं। जो इन सभी साधना विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि (२) कुछ व्यक्ति चारित्र सम्पन्न हैं, लेकिन ज्ञान-सम्पन्न गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया। यही कारण (३) कुछ व्यक्ति न ज्ञान सम्पन्न है, न चारित्र सम्पन्न है। था कि परवर्ती टीकाकारों ने अपने पूर्व-संस्कारों के कारण गीता (४) कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न भी हैं और चारित्र-सम्पन्न को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादन बताने का . . प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मागों को महावीर ने इनमें से सच्चा साधक उसे ही कहा जो जान गौण बताया' । शंकर ने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक और क्रिया, श्रुत और शील दोनों से सम्पन्न है। इसी को स्पष्ट ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना। करने के लिए निम्न रूपक भी दिया जाता है। लेकिन जैन-विचारकों ने इस विविध साधना-पथ को समवेत (१) कुछ मुद्रावें ऐसी होती हैं जिनमें धातु भी खोटी है रूप में ही मोक्ष का कारण गाना और यह बताया कि ये तीनों मुद्रांकन भी ठीक नहीं है। एक-दूसरे से अलग होकर नहीं, वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष (२) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु तो शुद्ध है को प्राप्त करा सकते हैं। उसने तीनों को समान माना और लेकिन मुद्रांकन ठीक नहीं है। उनमें से किसी को भी एक के अधीन बनाने का प्रयास नहीं (३) कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं जिनमें धातु अशुद्ध है लेकिन किया। हमें इस प्रांति से बनना होगा कि थवा, ज्ञान और मुद्रांकन ठीक है। आचरण ये स्वतन्त्र रूप में नैतिक पूर्णता के मार्ग हो सकते हैं। (४) कुछ मुद्राएं ऐसी हैं जिनमें धातु भी शुद्ध है और मानवीय व्यक्तित्व और नैतिक साध्य एक पूर्णता है और उसे मुद्रांकन भी ठीक है। समवेत रूप में ही पाया जा सकता है। बाजार में वही मुद्रा ग्राहा होती है जिसमें धातु भी शुद्ध बौद्ध परम्परा और जैन परम्परा दोनों ही एकांगी दृष्टिकोण होती है और मुद्राकन भी ठीक होता है। इसी प्रकार सच्चा नहीं रहते हैं । बौद्ध-परम्परा में शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा साधक वही होता है जो जान-सम्पन्न भी हो और चारित्र सम्पन्न प्रजा, श्रद्धा और वीर्य को सम्वेत रूप में ही निर्वाण का कारण भी हो । इस प्रकार जैन-विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और माना गया है । इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्पराएँ न केवल क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक है। ज्ञान और अपने साधन-मार्ग के प्रतिपादन में, वरन्- माधवत्रय के बलाबल चारित्र दोनों की समवेत साधना से ही दुःख का क्षय होता है। के विषय में भी समान दृष्टिकोण रखती हैं। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त हैं और वस्तुतः नैतिक साध्य का स्वरूप और मानवीय प्रकृति, दोनों एकान्त होने के कारण जैन दर्शन की अनेकान्तबादी विचारणा के ही यह बताते हैं कि विविध साधनामार्ग अपने समवेत रूप में अनुकूल नहीं हैं। ही नैतिक पूर्णता की प्राप्ति करा सकता है। यहाँ इस विविध सुलनात्मक दृष्टि से विचार साधना-पय का मानवीय प्रकृति और नैतिक साध्य से क्या जैन परम्परा में साधन-त्रय के समवेत में ही मोक्ष की सम्बन्ध है इसे स्पष्ट कर लेना उपयुक्त होगा। निष्पत्ति मानी गई है जबकि वैदिक परम्परा में जान-निष्ठा, मानवीय प्रकृति और त्रिविध साधना-पथ कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों ही अलग-अलग मोक्ष के मानवीय चेतना के तीन कार्य है-(१) जानना, (२) अनुभव साधन माने जासे रहे हैं और इन वाधारों पर वैदिक परम्परा करना और (३) संकल्प करना । हमारी चेतना का ज्ञानात्मक में स्वतन्त्र सम्प्रदायों का उदय भी हुआ है। वैदिक परम्परा में पक्ष न केवल जानना चाहता है, वरन् वह सत्य को ही जानना 1 - - - ७ आवश्यकनियुक्ति, १०१-१०२। २ व्यापाप्रप्ति, ८/१०/४१ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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