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________________ १८ | धरणानुयोग प्रस्तावना चाहता है। ज्ञानात्मक चेतना निरन्तर सत्य की खोज में रहती जैन आचार-दर्शन में साधक, साधना-पथ और साध्य में अभेद है। है। बत: जिस विधि से हमारी ज्ञानात्मक चेतना सत्य को उप- सम्यग्दर्शन का स्वरूप लब्ध कर सके उरो ही सम्यक् ज्ञान कहा गया है। सम्यक् ज्ञान धर्भ साधना यो तीन मुख्य अंग हैं-भक्ति, ज्ञान और कर्म। चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सत्य की उपलब्धि की दिशा में ले जैन परम्परा में इन्हें ही क्रमशः सम्यक दर्शन, सम्य-ज्ञान, जाता है। चेतना का दूसरा पक्ष अनुभूति के रूप में आनन्द की सम्यक चारित्र कहा गया है । इनमें सबसे पहले हम सम्यक्-दर्णन खोज करता है। सम्यग्दर्शन चेतना में राग-द्वेषात्मक जो तनाव के स्वरूप पर विचार करेंगे । वस्तुतः सम्यक्-दर्शन शब्द सम्यक हैं, उन्हें समाप्त कर उसे आनन्द प्रदान करता है। चेतना का और दर्शन एम दो शब्दों से मिलकर बना है जिसका सीधा और तीसरा संकल्पात्मक पक्ष शक्ति की उपलब्धि और कल्याण की सरल अर्थ है सही ढंग से या अच्छी प्रकार से देखना । यहाँ यह प्रश्न क्रियान्विति चाहता है । सम्यकचारित्र संकल्प को कल्याण के मार्ग उठाया जा सकता है कि अच्छी प्रकार से देखने का क्या तात्पर्य में नियोजित कर शिव की उपलब्धि करता है। इस प्रकार है? जच्छी प्रकार से देखने का एक तात्पर्य तो यह है कि विकार सभ्यग्जान, दर्शन और चारित्र का यह विविध साधना-पध चेतना रहित दृष्टि से देखना । आँख को विकृति हमारी चक्षु इन्द्रिय के के तीनों पक्षों को सही दिशा में निर्देशित कर उनके वांछित बोध को विकृत कर देती है प्रथा-पीलिया का रोगी सफेद लक्ष्य सत्, सुन्दर और शिव अथवा अनन्त ज्ञान, मानन्द और वस्तु को भी पीली देखता है, ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक शक्ति की उपलब्धि कराता है। वस्तुतः जीवन के साध्य को जीवन में राम-द्वेष हमारी दृष्टि को विकृत कर देते हैं, उनकी उपलब्ध करा देना ही इस त्रिविध साधना-पथ का कार्य है। उपस्थिति के कारण हम सत्य का उसके यथार्थ रूप में दर्शन जीवन का साध्य अनन्त एवं पूर्ण ज्ञान, अक्षय आनन्द और अनंत नहीं कर पाते हैं, जिरा पर हमारा राग होता है उसके दोष शक्ति की उपलब्धि है, जिसे विविध साधना-पथ के तीनों अंगों नहीं दिखाई देते हैं और जिससे द्वेष होता है. उसके गुण दिखाई के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष नहीं देते हैं । राग-द्वेष आँख पर चढे रंगीन चश्मों के समान हैं को सम्यक्-ज्ञान की दिशा में नियोजित कर ज्ञान की पूर्णता को, जो सत्य को विकृत बार के प्रस्तुत करते हैं । अतः सामान्य रूप से चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यग्दर्शन में नियोजित कर अक्षय सम्यक् दर्शन का है-सम और तप अर्थात पूर्वाग्रह के घेरे आनन्द की और चेतना के संकल्पात्मक पक्ष को सम्बवारित्र से ऊपर उठकर सत्य का दर्शन करना । राग और द्वेष के कारण में नियोजित कर अनन्त शक्ति की उपलब्धि की जा सकती है। ही आग्रह और मतान्धता पनपती है और वही हपारे सत्य के वस्तुतः जैन याचार दर्शन में साध्य, साधक और साधना पथ बोध को रंगीन या दुषित दना देती है। अत: आग्रह और तीनों में अभेद माना गया है। शान, अनुभूति और संकल्पमय मतान्धता से रहित दृष्टि ही सम्यक दृष्टि है। सत्य के पास चेतना साधक है और यही चेतना के तीनों पक्ष सम्यक दिशा में उन्मुक्त भाव से जाना होता है तभी सत्य के दर्शन होते हैं। नियोजित होने पर साधना-पथ कहलाते हैं और इन तीनों पक्षों जब तक हम राग-द्वेष. मतान्धता. आग्रह आदि से ऊपर उठकर की पूर्णता ही साध्य है। साधक, साध्य और साधना-पथ भिन्न- सत्य को देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं तब तक सत्य का यथार्थ भिन्न नहीं, वरन चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। उनमें अभेद स्वरूप हमारे सामने प्रकट नहीं होता है। अतः आग्रह और माना गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में और आचार्य पक्षपात से रहित दृष्टि ही सम्पदर्शन है। हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इस अभेद को अत्यन्त मार्मिक शब्दों में जैन परम्परा में सम्यकदर्णन शब्द तत्व श्रद्धा सथा देव, स्पष्ट किया है । आपार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं कि यह गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ में भी रूक है। लेकिन हमें आत्मा ही शान, दर्शन और चारित्र है। आचार्य हेमचन्द्र इसी यह समझ लेना चाहिए कि जब तक दृष्टि दूषित है तब तक अभेद को स्पष्ट करते हुए योगशास्त्र में कहते हैं कि आत्मा ही श्रद्धा सम्यक नहीं हो सकती है । दृष्टि के निर्दोष और निर्विकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है, क्योंकि आत्मा होने पर सत्य का यथार्य रूप में दर्शन होगा और उस यथार्थ इसी रूप में शरीर में स्थित है। आचार्य ने यह कहकर कि बोध पर जो श्रद्धा या आस्था होगी बही सम्यक् श्रद्धा होगी। आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में शरीर में स्थित है, सम्यक दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ उसका परवी अर्थ है मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रकृति को ही स्पष्ट किया है । ज्ञान, और भक्ति मार्ग के प्रभाव से जैन धर्म में आया है। मूल अर्थ चेतना और संकल्प तीनों सम्यक् होकर साधना-पथ का निर्माण तो दुष्टिपरक ही है । लेकिन श्रद्धापरक अर्थ भी साधना के लिए कर देते हैं और यही पूर्ण होकर साध्य बन जाते हैं। इस प्रकार कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । यथार्थतः आत्म-बोध और अपनी विकृ. १ समयसार, २७७ । २ योगशास्त्र, ४/१।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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