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________________ १९८] चरणानुपोग-२ स्वच्छवाधारी को प्रशंसा एवं वन्दना करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ४०५-४०७ अहाछंद पसंसण पायपिछत्त-सत्ताई ४०५. ने मिक्खू अहार्छवं पसंसद पसंसंत वा साइन । स्वच्छन्दाचारी की प्रशंसा एवं वन्दना करने के प्रायश्चित्त सूत्र४०५. जो भिक्षु "यथा छन्द" (स्वच्छंदाचारी) की प्रशंसा करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु "पचा छन्द" को बन्दना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे अनुपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। जे भिमबू महार्छवं बंद क्वंतं वा साइजद । तं सेबमागे आवस्जद चाउम्मासिय परिहारहाणं -नि. उ. ११, सू. ८२-८३ -नि. अणुग्धाइयं । माहारहाण संघ व्यवस्था संघ व्यवस्था-१ तित्थ सरूवं तीर्थ का स्वरूप४०६. ५०-तिस्थं भंते ! तित्यं, सित्वगरे तित्यं ? ४०६. प्र०-हे भगवन् ! "तीर्थ" को तीर्थ कहते हैं या तीर्थकर को तीर्थ कहते हैं। उ.-गोयमा ! अरहा ताव णियमं तित्यारे, २०-गौतम ! अरिहन्त तो अवश्य तीर्थकर हैं और चार तित्व पुण पासवण्णाले समणं संधे, संजहा- वर्णों से ज्याप्त श्रमण संघ तीर्थ है । यथा१. समणा, २. समगीओ, (१) श्रमण, (२) श्रमणी, ३. सावया, ४. सावियाओ। (३) श्रावक, (४) थाविका। --वि. स. २०,उ.८, सु. १४ तिस्थपवत्तण कालं तीर्थ प्रवर्तन का काल४०७. प.-जम्बुद्दीवे पं भंते ! बीवे मारहे वासे इमीसे ओसप्पि- ४०७.प्र.-भगवन् ! जम्बुद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में गीए देवाणुप्पियाण केवतियं कालं तिथे अणुसज्जि- इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ कितने काल स्सति ? तक रहेगा? उ०--गोयमा ! जंबुद्दीवे वीवे मारहे वासे इमोसे बोसप्पि- उल-गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में इस णीए ममं एक्कवीस वाससहस्साई तित्थे अणुसज्जि- अवसर्पिणी काल में मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा । स्सति । -जहा णं मंते जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे इमीसे प्र०-भगवन् ! जिस प्रकार जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत ओसप्पिणीए देवाणुपियाणं एक्कवीस बाससहस्साई क्षेत्र में इस अवसपिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ इक्कीस तित्थे अणुसज्जिस्सति, तहा भते ! जंबुद्दीवे दीवे हजार वर्ष तक रहेगा। उसी प्रकार जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारहे वासे आगमेस्साणं चरिमतिस्थगरस्स केवतियं भरत क्षेत्र में भावी तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थकर का तीर्थ काले तित्थे अगुसज्जिस्सति ? कितने काल तक अविच्छिन्न रहेगा? १ (क) वि. स. १६, उ. ६, सु. २१ (ख) पविहे संवे पण्णले, तं जहा(१) समणा, (२) समणीओ, (३) सावगा, (४) सावियाओ । -ठा. अ. ४, उ. ४, सु. ३६३
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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