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________________ ३.] घरगानुयोग-२ निग्रंन्यों के प्रशस्त लक्षण सूत्र ८७-८८ उ.-गोयमा ! जम्हा आणमह वा पाणमह या, उस्ससइ उ.-गौतम ! क्योंकि वह बाध और आभ्यन्सर श्वासोच्छ - वा, णीससह दा, तम्हा 'पाणे" ति वत्तवं सिया, वास लेता है और छोड़ता है इस कारण "प्राण" वाहा जा सकता है। जम्हा भूते, भवति, भविस्सति य तम्हा 'भूए" ति बह भूतकाल में श्रा, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, वत्तवं सिया, इस कारण "भूत" कहा जा सकता है। आम्हा जीवे जीवत्ति, जोवत्तं आउयंत्र काम उब- यह जीता है तथा जीवन का और आयुकर्म का अनुभव जोबति, तम्हा "जोये" ति क्त्तव्वं सिया, करता है, अतएव "जीव" कहा जा सकता है। जम्हा सत्ते सुमासुमेह सम्मेहि सः "" व शुभ अशुभ कर्मों से सम्बद्ध है, अतः "रात्व" कहा जा वत्तव्वं सिया, सकता है। जम्हा तित्त-कडुप-फसायंबिल-महुरे रसे जाणइ तम्हा वह तीखा, कड़वा, कषैला, खट्टा और मीठा इन रसों को विन' ति वत्तवं सिया। जानता है, अतः वह "विज्ञ" कहा जा सकता है। जम्हा घेवैद य मुह-बुक्खं तम्हा 'वे ति बसवं बह मुख दुःत का वेदन करता है अतः वह "वेद" कहा जा सिया, सकता है। से तेण?णं गोयमा ! 'पाणे' ति वसवं सिया इस कारण से गौतम ! उसे 'प्राण'-यावत् . 'वेद' वहा -जाव-वेदे त्ति वत्तम्वं सिया। जा सकता है। ५०-माई गं मंते ! नियंठे निरुतभवे, निस्वभवपवंचे प्रा० - मन्ते ! जो मासुक भोजी अनगार संसार का निरोध -जाव-मिट्टिअटुकरणिज्जे णो पुणरवि इत्तत्य हव्वं कर चुका है, भवनपंच का निरोध कर चुका है यावत्आगच्छद? जिसका कार्य पूर्ण हो चुका है, वह पुनः मनुष्यत्व आदि भावों को प्राप्त नहीं करता है ? उ०-हंता गोयमा ! मडाई यं नियंठे-जाव-नो पुणरवि उ०—गौतम ! ऐसा प्रासुक भोजी अनगार-यावत्इत्तत्वं हवं आगच्छद । पुनः मनुष्यत्व आदि भावों को प्राप्त नहीं करता । प.--से णं भंते ! कि वत्तम् सिया? प्र.-'भन्ते ! उसे किस शब्द से वहना चाहिए? ३०-गोयमा 1 "सिद्धे" सि बत्तव्य सिया, उ.--गौतम ! उसे "सिद्ध" कहा जा सकता है, "बुद्ध" ति वत्तव्वं सिया, प्रबुद्ध" कहा जा सकता है, "मुत्ते" ति वत्तवं सिया, "मुक्त" कहा जा सकता है, संसार के पार पहुंचा हुआ कहा जा सकता है, "पारगए" ति बत्तव्वं सिया, "परम्परगए" ति बत्तम्ब अनुक्रम से संसार के पार पहुँवा हुआ वहा जा सकता है सिया, सिद्ध, बुद्धे, मुत्ते, परिनिन्बुद्धे, अंतकडे, सचदुक्थ- तथा सिद्ध, वुद्ध, मुक्त, परिनिवृत, अन्तकृत और सब दुःखों का पहीणे ति बत्तठन सिया, -बि. स. २, उ. १, सु. -- नाश करने वाला कहा जा सकता है। निग्गंथाणं पसत्य लक्खणा निर्ग्रन्थों के प्रशस्त लक्षण८८ ५०-से नूर्ण भंते ! लावियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही ५८. भगवन् ! क्या लाव, अल्प इच्छा, अमूर्छा, बनासक्ति अपडिबक्षया समणाणं णिग्यं थाणं पसस्य ? और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण निग्रंथों के लिए प्रशस्त है ? उ.--हता, गोयमा! लावियं-जाव-अपडिबद्धया समणणं उ०-हाँ गौतम ! लापब-यावत्-अप्रतिबद्धता ये श्रमण निगाथागं पसत्यं । निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं। १०–से नूर्ण भंते ! अकोहत्तं अमागतं अमाय अलोभतं म०-भगवन् ! क्रोधरहितता, भानरहितता, मायारहितता समणाणं निभाणं पसत्यं ? और अलोभत्व, क्या ये श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त है ? उल-हंता, गोपमा ! अशोहरत-जाव-अलोमस्त समगाणं -हां गौतम ! क्रोधरहितता-पावत् :-अलोभत्व, ये निगंयाणं पसत्यं । सब श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं। प०-से मूणं भंते ! कखा-पदोसे खीणे समणे निगये अंत- प्र-मगजन् ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमण करे भवति, अंतिमसरीरिए वा, बहमोहे विचणं निर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम शरीरी (चरम) होता है ? अथवा नि
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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