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सूत्र ८६-८७
अणगार गुणा
८६. सत्तावीस अणगारयुगा पता तंज
(१) पाणातियातवेश्मने,
(३) मदिष्णादाण वेरमणे, (1) परिवारम
(७)
(२) मुसावा वेरमणे
(४) मेर
(६) सदिय
(८)
दिन
(१०) साहे
(१२) मावि
(१४)
().
(११) कोहविवेगे,
(१२) मायाविवे
(१५) नाव
(१६) करण सच्चे,
(१७) जोगसच्चे
(१८) समा
(२०) समाहरणा
(२१) वइसमाहरणता,
(२३) जाणपणा, (२५) परित संपण्णया, (२६) (२०) मारणंतियअहियासणया । महाई निर्दठ सहवं
101
(१९) विनता,
माता,
(२२) (२४) सण संपण्या,
-
अणगार के गुण
या,
सम. सम. २७, सु. १
८७. १० - माई णं मंते । नियंदे णो निरुद्धभवे, णो निरुद्धअब भी पीयसंसारे, णो पहीणसंसारये अभिने णी बसंसारे, णो वोच्छिम संसारवेअणिज्जे, तो निपट्ठे नोकर पुरवित्वं वं अरगच्छ ?
उ०- हंता गोषमा ! मडाई नं नियंडे जाव पुणरहितत्वं आगच्छ । - वि. स. २ . १, सु. ६-६ प० - से णं मंते ! कि ति वस्तभ्यं सिया ?
-गोयमा ! "पाणे" सि वसव्वं सिया,
"ए" ति वसव्वं सिया, "जी" सिसिया, "सते" ति बस शिवा, "विष्णू" ति वसव्वं सिया, "वेवे" सि यसव्वं सिया,
पाणे, भूए, जी, ससे, विष्णू बेटे नि बलव्यं लिया !
प० सेकेणं ते! पागे ति तवं शिया नाव- येरे तिवसम्वं सिया ?
संयमी जीवन
अणगार के गुण
६. मुनि के सत्ताईस गुण कहे गये हैं, यथा-
(१) प्राणातिपात विरमण,
(३) अदत्तादान विरभण
(2) परिवह विरगण, (1)
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(६) रसनेन्द्रियनिष
(२) मृषावाद विरमण
(४) मैथुन विरमध (९) श्रन्द्रियनिग्रह
(८) प्राद्रियनिग्रह
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(१०) स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह,
(१२) मानविवेक
(१४) सोम विवेक,
(११) क्रोध विवेक,
(१३) माया विवेक,
(१५) भाव सस्य (वन्तरात्मा की पवित्रता),
(१६) करण सत्य (या को सम्यक् प्रकार से करना)
(१७) योग सत्य भन, वचन, काया का सम्यक् प्रवर्तन) (21) STAT
(११) वैराग्य, का संकोचन )
(२०) मन समाहरण (मन
(२१ वचन समाहरण,
(२२) काय समाहरण,
(२४) दर्शन सम्पन्नता, (२६) बेदना सहन करना,
(२३) ज्ञान सम्पन्नता,
(२३) चारित्र सम्पा (२७) मारणान्तिक कष्ट सहन करना ।
मृतादि निर्मन्थ का स्वरूप
८७. प्र० - भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया है, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया है, संसार को क्षीण नहीं किया है, संसार वेदनीय कर्म को क्षीण नहीं किया है, जिसका संसार नहीं हुआ है, संसार बेदनीय कर्म नहीं हुआ है, जिसका प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ है, जिसका कार्य पूर्ण नहीं हुआ है, ऐसा आयु आहार करने वाला अनगार क्या पुनः शीघ्र मनुष्यमत्र आदि भावों को प्राप्त करता है ?
उ०- हाँ गौतम ! ऐसा प्रासुक भोजी अनगार - यावत्पुनः शीघ्र मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त करता है।
प्र०- भन्ते ! उसे किस शब्द से कहा जाये ?
उ०- गौतम ! वह "प्राण" ऐसा कहा जा सकता है,
"भूत" ऐसा कहा जा सकता है.
"जीव" ऐसा कहा जा सकता है। "सर" ऐसा कहा जा सकता है, "विज्ञ" ऐसा कहा जा सकता है,
"वेद" ऐसा कहा जा सकता है।
तथा एक साथ प्राण, भूत, जीव, सत्व, विज्ञ और वेद भी कहा जा सकता है ।
प्र०---धन्ते ! किस कारण से उसे प्राणघात्-वेद कहा जा सकता है ?