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________________ २८] धरणामुयोग ममुनि तथा मुनि का स्वरूप सूत्र ६३-६४ गुणेहिं साहू अगुणेह साहू, __ मनुष्य गुणों से साधु होता है और अवगुणों से असाधू होता गिहाहि साहू गुणमुंघऽसाहू। है। इसलिए साधु के गुणों को ग्रहण करना चाहिए और अवबियाणिया अपगमप्पएणं, गुणों को छोड़ देना चाहिए। अपनी ज्ञान-आत्मा के द्वारा आत्मा जो रागदोसेहि समो स पुन्जो ।। को बोधित कर जो राग-द्वैष में समभाव रखता है, बह पूज्य है। तहेव सहर महल्लग वा, ___ जो साधु बालक वा वृद्ध की, स्त्री या पुरुष की, साधु या इत्थी पुमं पब्वइयं गिहि वा। गृहस्थ की हीलना लिसा नहीं करता है, गर्व और क्रोध का नो हीलए नो वि य खिसएग्जा, त्याग करता है, वह पूज्य है। भं च कोहं च पए स पुज्जो ॥ -दस अ.६, उ. ३, गा.१०-१२ अमुणी-मुणी सरूवं अमुनि तथा मुनि का स्वरूप५४. दुरवसु मुगी अणाणाए, तुच्छए गिलाति वत्तए। ८४. जो मुनि वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम-धन से रहित होता है, वह चारित्र से तुच्छ (हीन) होने के कारण धर्म का कथन करने में लज्जा का अनुभव करता है। एसवीरे पसंसिए अच्चेति लोगसंजोगं । एस पाए पत्रुच्चति। वहीं वीर पुरुष सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है जो लोक संयोग से दूर हट जाता है वही नायक (अग्य को मोक्ष की ओर ले जाने वाला) कहलाता है। जं दुक्खं पवेदितं इह मागवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला इस संसार में मनुष्यों के जो दुःख बताये हैं, कुशल पुरुष परिणमुवाहरति इति कम्भ परिण्णाय सथ्यसो । उन दुःखों से मुक्त होने का मार्ग बताते हैं कि सब प्रकार के कर्म बन्ध के कारणों को जानकर उनका त्याग करना चाहिये । जे अणण्णवंसी से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से, जे अण- जो स्वयं की आत्मा को देखता है, वह आत्मा में रमण ग्णवंसी। - आ. सु. १, अ. २, उ. ६, सु. १००-१०१ करता है । जो आत्मा में रमण करता है, वह अपनी मारमा को देखता है। संजयमगुस्सापं सुत्ताणं पंच जागरा पणत्ता, तं जहा- संयत मनुष्य सुप्त होते हैं तब उनके पांच जागृत होते हैं-- (१) सदा, (२) रुवा, (३) गंधा (४) रसा, (५) फासा । (१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श । संजयमगुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पाणता, तं जहा संयत मनुष्य जागृत होते हैं तव उनके पांच सुप्त होते हैं(१) सद्दा, (२) रूषा, (३) गंधा, (४) रसा, (५) फासा । (१) शब्द, (२) स्प, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श । असंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा जागरा पपणत्ता, असंयत मनुष्य सुप्त हो या जागृत फिर भी उनके पांच तं महा जागृत होते हैं(१) सद्दा, (२) रुवा, (३) गंधा, (४) रसा, (५) फाला। (१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श । -ठाणं अ. ५, उ. २, सु. ४२२ अणत्तवओ अत्तवओयणा-- अनात्मवान और आत्मवान५५. छठाणा अणत्तवमओ अहिताए असुनाए अखमाए अणीसेसाए ८५. अनात्मत्रान के लिए छह स्थान-अहित, अशुभ, अक्षम, अणाणुगामियत्ताए भवति, तं जहा ___ अनिःश्रेयस तथा अनानुगामिकता (अशुभ अनुवन्ध) के हेतु होते हैं(१) परियाए, (२) परियाले, (३) सुते, (१) पर्याव-अबस्था या दीक्षा में बड़ा होना, (२) परिवार (४) तवे, (५) लाभे, (६) पूपासक्कारे। (३) श्रुत, (४) तप, (५) लाभ, (६) पूजा-सत्कार । छट्टाणा अत्तवतो हिसाए सुमाए बमाए गोसेसाए आणुगामि- आत्मवान के लिए छह स्थान हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस यत्ताए मयंति, तं जहा--- तथा आनुगामिकता के हेतु होते है - (१) परियाए, (२) परियाले, (३) सुते, (१) पर्याय, (२) परिवार, (३) श्रुत, (४) तो, (५) लामे, (६) पूयासबकारे । (४) तप, (५) लाभ, (६) पूजा सत्कार । -ठाणं. अ. ६, सु. ४६६
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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