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________________ पून ३ मुनियों के लक्षण संयमी जीवन [७ मुणी। संखाय पेसलं दिट्टिमं परिणिबुडे । वह सम्यग्दृष्टि मुनि पवित्र उत्तम धर्म को सम्यक् रूप से जानकर क्षायों को सर्वथा उपशान्त करे। तम्हा संगति पासहा। इसलिए तुम आसक्ति के विपाक को देखो। गंथेहि गढिता जरा विसष्णा कामक्कता। परिग्रह में गृद्ध और उनमें निमग्न बने हुए मनुष्य काम भोगों से आक्रान्त होते हैं। तम्हा लहातो णो परिवित्तसेज्जा । जस्सिमे आरंभा स यतो इसलिए मुनि संयम से उद्विग्न न हो। जिन आरम्भों से सश्चताए सुपरिपणाता भवति जस्सिमे लूसिणो णो परिवित्त- हिंसक वृत्ति बाले मनुष्य उद्विग्न नहीं होते उन आरम्भों को जो संति, से बंता कोधं व माणं च मायं च लोभं च । एस मुनि सब प्रकार से सर्वात्मना भलीभांति त्याग देते हैं। वे ही तिउट्ट विवाहिते ति बेमि। मुनि क्रोध, मान, मावा और लोभ का वमन करने वाल होते है । वे ही मुनि संसार-शृंखला को तोड़ने वाले कहलाते है । कायस्स वियावाए एस संगामसांसे वियाहिए । से पारंगमे शरीर का विनाश (मृत्यु) फर्म संग्राम का अग्रिम मोर्चा वहा गया है । इसमें पराजित नहीं होने वाला मुनि पारगामी होता है। अवि हम्ममाणे फलगावतट्टी कालोवीते कखेज कालं-जाव- मुनि परीषहों से आहत होने पर भी लकड़ी के पाटिये की मरोरभेदी ति बेमि। भौति स्थिर रहकर मृत्युकाल निकट आने पर समाधिमरण की -आचा. सु. १, अ६, उ. ५, सु. १६४-१९८ आकांक्षा करते हुए जब तक शरीर का आत्मा से वियोग महो तब तक वह मरणकाल की प्रतीक्षा करे । सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरति। अज्ञानी सदा सोये रहते हैं और मुनि निरन्तर जागृत रहते हैं । लोगसि जाण अहियाय दुक्क । इस बात की जानो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। समयं लोगस्स जाणिता एत्थ सत्थोषरते। मुनि सभी आत्माओं को समान जानकर उनकी हिंसा से -आ. सु. १. अ. ३. उ. १, सु. १०६ उपरत रहे। अस्सिमे सद्दा य हवा य गंधा य रसाय फासा य अमिस- जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक् मण्णागता मयंति से आतवं णाणवं वेयवं धम्मयं बंभवं प्रकार से जानकर उनकी नासक्ति का त्याग कर दिया है वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, शास्त्रज्ञ, धर्मवान् और ब्रह्मचारी होता है। पष्णाणेहि परिजाणंति लोग, मुणी ति बच्चे धम्मविबु ति जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि अंजू आवट्टसोए संगममिजाणंति । कहलाता है । वह धर्मवेत्ता और ऋजु होता है। यह आसक्ति -बा. सु. १, अ. ३, उ. १, सु. १०७ को संसार भ्रमण का हेतु समझता है। संधि लोमस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास । साधक धर्म के अवसर को जानकर अपनी आत्मा के समान तम्हा ण हंता ण विघातए। ही बाह्य जगत के जीवों को देखे । (कि सभी जीवों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है।) इसलिए किसी भी जीव का हनन न करे और न दूसरों से हनन करवाये । जमिणं अण्णमण्णवितिगिछाए पडिलेहाए ण परेति पावं कम्मं जो व्यक्ति परस्पर आशंका भय एवं लज्जा के कारण पाप कि तत्व मुणी कारणं सिया? ___ कम नहीं करता है, तो क्या यह भी मुनित्व का कारण है ? -आ. सु. १, अ. ३, उ, ३, सु. १२२ अर्थात् नहीं है । अलोलुए अक्नुहए अमाई, जो साधु रस लोलुप नहीं होता, इन्द्रजाल मआदि के अपिसुणे यावि अवीणवित्ती। चमत्कार प्रदर्शित नहीं करता, माया नहीं करता, चुगली नहीं भो भावए नो वि य मावियप्पा, करता, दीन भावना से याचना नहीं करता, दूसरों से आत्मअकोउहल्ले यसपा स पुजो।। एलाचा नहीं करवाता, स्वयं भी आत्मश्लाघा नहीं करता और जो कुतूहल नहीं करता, वह पूज्य है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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