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________________ सूत्र ३२२-२२६ विराधक प्रत्यनीक श्रमण कालमासे कालं पितर उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे वैवसाए उतारी भवति हि खिगई-जावस सागरोवमा - उव. व. सु. ७६८१ - या परमोगस्स विरागा विराहमा पत्रिणीया समणा २४. गामादराम पवमा समणा भवंति तं जहा - १. परिपनीया २ उम आयरिय-पश्चिीया, उवाय४. ५. रिय-उवज्झायाणं अपसका रगा ६. अवष्णकारगा, ७. अकिसिकारया, बहूहि असम्भावुभावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पानं परंबुग्गामाया बुच्याएमाणा विहरित बहू वासाई सामन्नपरिया पाउनति पाणिता तहस ठाणस्स अणालोइय-अध्यकिंता कालमासे कालं किया उनको नंतर कप्पे देवकिमिलिए देवकिष्य सिपत्ताए उववत्तारो भवंति । तेरस सागरोपमा दिई जाव-परलोगस्स - उप. सु. ११७ तं जहा - १. बुधरतरिया, २. तिधरंतरिया ३. सत्तघरतरिया ४ सय ५ रसमुराणिया ६. विम्बु तरिया, ७. उट्टिया समणा, बिहारेण विहरयाणा बहु बसाई सामण्ण परियार्थ पाउणंति पाणिता कालमासे कालं किच्या उक्सोसे मर कथ्ये देवताए उत्तारो भवति । आराधक विराधक [ १५१ हि सिजायीसं सागरोणपाई ठिई-नाय-परमो गस विराहगा ! उब. सु. १२० तक वैसा कर मृत्युकाल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में उत्पन्न होते है यहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनको पति होती है यावत् दस सागरोषव की स्थिति होती है-पात-ये परलोक के विराधक होते है। विराधक प्रत्पनीक भ्रमण -- - विरागा । विरहगा आजीविया ३२५ मेगामावर जाय-सणिवेने आजीविया भवंति ३२५. ग्राम, आकर पावत् सन्निवेश में जो जीविक (नोशालक के अनुयायी होते है यथा (१) दो, (२) तीन या (३) सात घर बीच-बीच में छोड़कर भिक्षा ग्रहण करने वाले, (४) भिक्षा में गलदण्डल ग्रहण करने वाले, (५) प्रत्येक पर से भिक्षा लेने वाले (६) बिजली चमकने पर भिक्षा के लिए नहीं घूमने वाले और (७) मिट्टी की कोठी में प्रविष्ट होकर तपस्या करने वाले । इस प्रकार का आचरण करते हुए वे बहुल वर्षों तक बाजीविक पर्याय का पालन कर काल मास में काल करके उत्कृष्ट अच्युत कल्प में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। नहीं अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है यावत्बाईस सागरोपम की स्थिति होती है - यावत् - वे परलोक के विराधक होते है। ३२४. ग्राम, आकर—यावत्सन्निवेश में जो मे प्रवजित श्रमण होते हैं, जैसे (१) आचार्य के विरोधी, (२) उपाध्याय के विरोधी (३) कुल के विरोधी, (४) वय के विरोधी (4) आचार्य और उपाध्याय का अपयश करने वाले, (६) अवर्णवाद बोलने वाले, (७) पति या निदा करने वाले । वे बहुत से असत्य आरोपणों से तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेशों द्वारा अपने को औरों को तथा दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, मजबूल करते हुए इस प्रकार विचरण करते हुए बहुत वर्षो तक श्रमण पर्याय का पालन करते हैं और पालन करके--- अपने पाप-स्थानों की आलोचना प्रतिक नहीं करते हुए मृत्यु-कारा जाने पर मरण प्राप्त करके उत्कृष्ट नामक छठे देवलोक में किल्विषिक संज्ञक देवों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है यावत्तेरह मानरोपम प्रमाण की स्थिति होती है-पानीक के विराधक होते है। विराधक आजीविक विरागा अतुक्कोसिया समणा विराधक आत्मोत्कर्वक श्रमण ३२६. से जे इमे गामागर- जाव सण्णवेसे पावश्या समणा भवंति ३२६. ग्राम, आकर - यावत् सन्निवेश में जो ये प्रव्रजित श्रमण तं जहा होते हैं, यथा-
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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