________________
१५८]
चरणानुयोग-२
निर्भय का स्त्रीत्व के लिए निदान करना
सूत्र ३३१-३३२
सा गं तत्थ दारिया मवह सुकुमाला-जाव. सुरुवा।
वहाँ बह बालिका सुकुमार—यावत् - सुरूप होती है । तए णं तं वारियं अम्मा-पियरो उम्मुक्क-बालभावं, विष्णाग- उसके बाल्य भाव मुक्त होने पर तथा विज्ञान परिणत एवं परिणयमित, जोवणगमणुप्पत्तं, पडिलवेणं सुक्केण पबि- यौवन वयं प्राप्त होने पर उसे उसके माता-पिता उस जैसे सुन्दर स्वस्स भत्तारस भारियसाए बलयंति ।
एवं योग्य पति को अनुरूप दहेज के साथ पत्नी रूप में देते हैं। सा गं तस्स मारिया प्रवाह एमा, एगजाया, इटा, कता, वह उस पति की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, पिया, मषुण्णा, मणामा, शेजा, वेसासिया सम्मया बहुमया, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत (अतीव अणुमया, रयण-करेंडग-समाणा।
मान्य) रत्न करण्ड के समान केवल एक भार्या होती है। तीसे णं अतिजायमाणोए वा निज्जायमाणोए वा पुरतो महं आते-जाते उसके आगे छत्र झारी लेकर अनेक दासीदास, यासी-सास-किफर-कम्मफर पूरिसा छत्त, मिगारं गहाय नौकर चाकर चलते हैं यावत्-एक को बुलाने पर उसके निग्गच्छत्ति-जाय-3 तस्स एगमवि आणवेमाणस्स जाप सामने चार-पांच बिना बुलाये हो आकर खड़े हो जाते है और चत्तारि पंच अवुत्ता चेव अग्मुळंति---''पण देवाणुप्पिया ! पूछते हैं कि -"हे देगनुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? - यावत् किं करेमो-जाव कि ते आसमस्स सक्षप्ति ।"
आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" । ५० - तोसे ण तापणाराए इथियाए तहाल्वे समणे वा प्र--जस ऋषि सम्पन्न स्त्री को तप संयम के मूर्त रूप
माहणे वा उमयकाल केवलिपपणत्तं धम्म आइक्सेना? श्रमण-माहन उभयकाल केवलि प्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ० हंता ! आइक्वेज्जा।
उ.-हाँ कहते हैं। पल-सा गं परिसुणेज्जा?
प्र - क्या वह (श्रद्धा पूर्वक) सुनती है ? 30-- जो इण सम₹ । अभविया सा तस्स धम्मस्स उ..-यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उस धर्म श्रवण के सवणयाए।
लिए अयोग्य है। सा च भवति महिन्छा-जाब वाहिणगामिए गेरइए वह उत्कृष्ट अभिलाषाओं बाली—यावत -दक्षिण दिशाकण्हपषिखए आगमिस्साए बुल्लभबोहिया यावि भवइ। अती नाक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूप में उत्पन्न होती है तथा
भविष्य में उसे सभ्यक्त्व को प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। एवं खलु समणाउसो ! तस्स नियाणस्स इमेयारूवे हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान मल्य का यह पापकारी पावए फल-विचागे-जणो संचाएति केसिपण्णस धम्म परिणाम है कि--वह कलि प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर
परिसुणित्तए। दसा. द. ११, सु. २६-२६ सकती है। ३. णिगंथरस स्थित्तट्ठा णिदाणं करणं
(३) निम्रन्थ का स्त्रीत्व के लिए निदान करना३३२. एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णते, हणमेव निग्गंधे ३३२. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है। पावयणे समो-जाब सम्बस्थाण अंत करेंति । यही निग्रंग्य प्रवचन सत्य है-यावत्-सब दुःखों का अन्त
करते हैं। जस्स गं धम्मस्स सिक्साए निगये सबदिए बिहरमाणे-जावई कोई निर्घान्य केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए पासेज्जा से जा इमा इस्पिया मति-एगा, एगजाया उपस्थित हो विचरते हुए-पावत् -एक स्त्री को देखता हैजाव' ज पासित्ता निग्गंथे निवाण करेति--
जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है--यावत्--
निर्ग्रन्थ उस स्त्री को देखकर निदान करता है। "युक्खं खलु पुमत्तणए,
"पुरुष का जीवन दुःखमय है, जे इसे उगापुत्ता महा-पाउया, भोगपुत्ता महा-माटया, क्योंकि जो ये मिशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उप्रवंशी या भोगएतेसि णं अण्णतरेसु उपचायएसु महासमर-संगामेसु उम्चा- वंशी पुरुष हैं वे किसी छोटे-बड़े युद्ध में जाते हैं और छोटे-बड़े वयाई सस्थाई उरसि वेव परिसंवेति । है कुक्स खलु शस्त्रों का प्रहार वक्षस्थल में लगने पर वेदना से व्यथित होते पुमत्तथए, इस्थितण साह।"
हैं। अतः पुरुष का जीवन दुःखमय है और स्त्री का जीवन सुखमय है।"
१-७ प्रथम निदान में देखें।