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________________ २] [३३०-३३१ निम्बी का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना प०-से णं पडिसुजा ? उ०- णो ण सम । अभविए णं से तस्स धम्मस्स सवणयाए । से य भयह महिया नेए कह पक्षिए आगमिस्साए होहिए याचि भवद तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स बियाणस्स हमेपाइले पाच कलामो संचाए लिपगतं धम्मं पडिणितए । प्रसाद १०. सु. २२-२५ (२) निमांची माणुस्तव भोगट्ठा निदान करणं ra जरा धम्मस्य निधी विताए उया विहरमागी -जाब व परसेज्जा से जा हमा इत्थिया भवद्द-एगा, एगजाया गाभरणचिहाया ल-पेला इस संगोषिता, बेल-येला सुपरिगहिया राणी तीसे णं अतिजायमाणीए वा निज्जायमाणीए या पुरओ महं दासीदास किंकर -कम्मकर-पुरिसा, छत्तं भिगारं हाय निति-जाय तस्स नं एगमवि आणवेमास जाय घसारि पंच अवता शेष अवसति "मण बेबास्पियर कि फरेमो जाब-5 कि ते आसगस्स सदति ?" जं पासिता निधी निदाणं करेति · आराधक - विराधक २३१. एवं जल समाउसो भए घम्मे पण इथमेव निबंध १३१. हे आयुष्मान् श्रम! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। पावणे सच्चे जाव' सम्यक्स्थाणं अंत करेंति । निकेत करते हैं । इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर आराधना करती हुई निर्ग्रन्थी - यावत्-एक ऐसी स्त्री को देखती है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है। वह एक सरीखे (स्वर्ण के या रस्तों के) आभरण एवं वस्त्र पहने हुई है तथा तेल को कुप्पी, वस्त्रों की पेटी एवं रत्नों के करंडिये के समान संरक्षण और संग्रहणीय है। [१५७ १. सु. २, अ. २. २०६१ (अंगलागि) २-७ प्रथम निदान में देखें । प्र० क्या वह सुनता है ? वि०- यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उम धर्म श्रवण के योग्य नहीं है । वह महा इच्छाओं वाला यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में कृष्णपाक्षिक तैरयिक रूप में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है । हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान शल्य का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवल जप्त धर्म का भी नहीं कर सकता है। (२) निर्ग्रन्थी का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना "जह इमस्स सुधरिय-तब-नियम- बंधवासस्स करणाने फलमविसे स्थितं मवि भागमिस्साए मापा रुवाई जरालाई माणुस्लगाई कामभोगाई मुंजमाणी विह रामि से तं सानु । " "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों को भोगते हुए विचरण करूँ तो यह श्रेष्ठ होगा ।" एवं खलु समणाउसो ! निधी पिहाणं किन्वा तस ठाण हे आयुष्मान् श्रमणो ! वह निर्ग्रन्थो निदान करके उस अणालय अकिंता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु निदान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के देवलए देवताए उपसारा मन्द्र- याय दिलाई भोगाई अन्तिम क्षणों में देह स्थान पर किसी एक देवलोक में देवरूप में भुजमाणी विहरतिवाद वा ताबो देवलगानी बाउ- उत्पन्न होती है यावत् दिव्य भोग भोगती हुई रहती है खणं भवखणं, लिए अनंतरं जयादा भव और स्थिति का अम होने पर वह उस भतिजा महामाया-भोगगुता महामाया एतेसि देवलोक से व्ययकर विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्रवंशी पा अग्गयरंसि सनि वरियता पच्चायति । भोगवंशी कुल में किसी एक कुल में बालिका रूप में उत्पन्न होती है । प्रासाद में बाते जाते हुए उसके आगे छत्र झारी लेकर अनेक दासी दास नौकर चाकर चलते हैं- यावत् - एक को इसने पर उसके सामने चारयन बिना बुलाये ही आकर लड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? - यावत्- आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" उसे देखकर निर्मन्यी निदान करती है कि
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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